Thursday, August 10, 2017

लघुकथा

'पर्यावरण पर एक सच
 लघुकथा
रेल के उस डिब्बे में पूरा का पूरा समाजवाद ठसा-ठस भरा था , भाई-भतीजावाद दांएं-बांएं जुगाड़ से सामान की जगह जमे थे। हर कोई आचार्य नरेन्द्रदेव,लोहिया के थैले का वारिस अपने को साबित करने में लग चुका था। गाड़ी को बंबई स्टेशन से खुले हुए कोई घंटा भर से ऊपर हो चुका था । कल्याण से आगे चल रही गाड़ी के चालू डिब्बे में सब एक दूसरे के अच्छे पड़ोसी साबित होने लगे थे , कुछ देर पहले की रार तकरार का कोई टुकड़ा नहीं बचा था । मैंने भी लखनऊ आने के लिए मजबूरन इस डिब्बे में 100रु.की खिड़की के पास वाली सीट खरीदी थी। मेरे सामने की सीट पर अपने पूर्वांचल का गबरू भइया बैठा बार-बार बीड़ी पीता और उसका जहरीला धुंआं मेरी ओर उड़ाता । मनमाड स्टेशन पर उसने मुझे चाय बड़े इसरार प्यार से पिलाई और गाड़ी खुलते ही उसने नई बीड़ी सुलगाई । अब मुझसे रहा न गया , मैं उससे बोला कि बीड़ी का धुआं मुझे परेशान कर रहा है । उसने बोला बाबू अब नाहीं परेशान करेगा और नीचे झुक कर अपने थैले से उसने एक अलम्युनियम का लोटा निकाला , मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि कि वह करने क्या जा रहा है ? इसी दौरान उसने बीड़ी का कश लगाया और सारा धुआं लोटे में उगल दिया और लोटा खिड़की से सलाखों के पास सटा दिया । इस तकनीक से सारा धुआं बाहर हवा में घुल मिल गया लेकिन मैं पूरे रास्ते चैन से रहा। मेरे मन में आज तक सवाल उठता है कि हवा में घुला जहर धुएं की शक्ल में कहां-कहां कितनों की जान ले रहा होगा ? पेड़ जरूर बचाएं, कचरा कतई न जलाएं , जल ही जीवन है , लेकिन अपने आस-पास ऐसी छोटी चीजों को अनदेखा न करें जो आपके जीवन को नुकसान पहुंचा सकती हैं । यह घटना एकदम सत्य और 40 बरस पहले की है । प्रणाम ।


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