Friday, November 9, 2012

माँ तेरी ही बीमार है

ओ पुत्र! सुन धैर्य से,
तेरी छह फुट साठ किलो की
काया में रक्त जो दौड़ रहा है
चूसा है तूने अपनी मां के तन से।
उद्दंड आवाज नीची कर
मां तेरी ही बीमार है
आज भी तेरे काटे का
घाव टीसता है मां के स्तन से।
एक रात तू तप रहा था
बुखार में आग सा
न सोने दिया उसने किसी
देवी देवता को, सबको सुमिरा मन से।
डाॅक्टरों ने कह दिया था
अब भगवान ही बचा सकता है
आँगन में लगी तुलसी के आगे
रात भर आँसू उसके बहते रहे सावन से।
और जिस पेड़ के नीचे है खड़ा
तू जिसे पूजता है पिता मान
उसे भी उसने सींचा है अपने बदन से।
अरे मूर्ख, वो नहीं चीखेगी
दर्द को भी उसने ही है पाला पोसा
उसका है वो बड़ा बेटा
वही साथ है रहा उसके पूरे जीवन से।
माँ तेरी ही बीमार है।
माँ तेरी ही बीमार है।
माँ तेरी ही बीमार है।
माँ तेरी ही बीमार है।
-राम प्रकाश वरमा
09839191977

DEEPAWALI PER BADHAI

मित्रो,
दीपावली पर शुभकामनाएँ .जब माता लछमी के आगे दीपक जलायें तो एक दीपक मेरे नाम का भी .............
जला ................मै भी आपकी मुडेर पर एक छोटा सा चिराग बन आपकी ख़ुशी में रौशन हो सकुंगा
                 


                                 शुभकामनाएं            

सूरज ढले ,दीप जले ,फिर हम तुम मिले ,
प्यार से गले मिले,  हो गई दीवाली .
          राम प्रकाश वरमा 

Tuesday, November 6, 2012

हिन्दी के स्वर्णयुग में भी था बाजार


आरोप और आलोचना के नामवर प्रेमचंद्र की फोटो पर अपने पंजों के बल खड़े होकर गुलाब के फूलों की माला पहनाते हुए हिन्दी के स्वर्णयुग को जातियों के खांचे में बांटने का अपराध जानबूझकर लगातार करते रहे हैं। उस पर जिद यह कि उसे शोध मान लिया जाए। ऐसा ही एक प्रयास ‘हिन्दुस्तान’ हिन्दी दैनिक समाचार-पत्र 26 जुलाई, 2000 के अंक में ‘लखनऊ की अदालत में प्रेमचंद के खिलाफ नालिशे दीवानी’ लेख के जरिये किया गया था। उसके उत्तर में मैंने स्वयं सुबूतों व प्रेमचंद की स्वीकारोक्ति के साथ लेख लिखा, जिसे ‘एक पहलू यह भी’ के शीर्षक से उसी पृष्ठ पर 30 अगस्त, 2000 के अंक में ‘हिन्दुस्तान’ ने छापा था। नई पीढ़ी के लिए एक बार फिर यहां छापा जा रहा हैं। -संपादक
    चिता की ठंडी राख से पवित्र भूमि पर आड़ी तिरछी रेखाएं खींचकर उसके पुण्य को, उसकी कीर्ति को, उसकी पवित्रता को कालंकित नहीं किया जा सकता। और न ही सच के मुंह में झूठ की जुबान डाली जा सकती है। जब-जब ऐसे प्रयास होते हैं, तब-तब नई पीढ़ी को इतिहास के जंगलों में भटकना पड़ता है। हिन्दी के माथे की बिन्दी प्रेमचन्द अकेले ‘मोटे रामजी शास्त्री’ या ‘सोजेवतन’ के लिए ही नहीं विवादों में फंसे थे, वरन ‘रंगभूमि’ थैकरे के ‘वैनिटी फेयर’ व ‘कायाकल्प’ हालकेन के ‘एटर्नल सिटी’ पर आधारित होने के विवाद में भी फंसे थे। यह दोनों विवाद उस समय की ख्याति प्राप्त पत्रिका ‘सरस्वती’ व ‘सुधा’ में छपे थे। प्रेमचन्द के स्पष्टीकरण भी छपे थे। बावजूद इसके पं. दुलारेलाल भार्गव ने अपने प्रकाशन ‘गंगा पुस्तक माला’ से ‘रंगभूमि’ को 1924 में प्रकाशित किया। ‘रंगभूमि’ के लिए पं. दुलारेलाल भार्गव ने आठारह सौ रूपया उस समय दिया था।
    प्रेमचन्द की रंगभूमि तथा थैकरे के ‘वैनिटी फेयर’ के साम्य को श्री अवध उपाध्याय ने सरस्वती के सन् 26 की अंकों में ‘गणित के समीकरणों’ द्वारा प्रमाणित करने की चेष्ठा की थी। प्रेमचन्द ने ‘अपनी सफाई’ में इसका स्पष्टीकरण स्वयं कर दिया था। फिर भी वह लेखमाला निकलती ही रही थी। बाद में श्री रूद्र नरायण अग्रवाल ने एक विस्तृत लेख द्वारा श्री उपाध्याय के आरोपों का पूर्णतः खंडन किया था।
उपाध्याय जी के आरोप
1- एक से अधिक नायक-नायिकाओं का समावेश।
2-वैनिटी फेयर की अमेलिया, रंगभूमि की सोफिया से, जिसमें कुछ भाग ‘वैनिटी फेयर’ के दूसरे नारी पात्र रेबेका का भी है, काफी मिलती-जुलती है।
3-रेबेका का, संभवतः सोफिया के साम्य से बचे हुए अंश का, इंदु का साथ साम्य है।
4- जार्ज आसवर्न का विनय से साम्य है।
    श्रीमती गीतालाल एम.ए., पी.एच.डी. रंगभूमि पर थैकरे के ‘वैनिटी फेयर’ का प्रभाव उसके नाम के चुनाव अथवा विस्तृत पट की दृष्टि से पड़ा है। पर नारी पात्रों पर तो अवश्य नही है।
    इसी प्रकार एक लेख में शिलीमुख ने प्रेमचन्द की ‘विश्वास’ कहानी को हालकेन के ‘एटर्नल सिटी’ पर पूर्णतः अवलम्बित बताया था (सुधा 10/27) यह कहानी पहले ‘चांद’ में छपवायी थी। फिर ‘प्रेम प्रमोद’ नाम कहानी संग्रह में उसने पहली कहानी का स्थान पाया, शिलीमुख का कहना था कि ‘एटर्नल सिटी’ एक उपान्यास है और ‘विश्वास’ एक कहानी, इसलिए प्रेमचन्द की रचना उस पर अवलम्बित होने पर भी तर्कयुक्त और संगत नहीं हो सकी है, बल्कि विकृत और अविश्वसनीय हो गयी है। इस लेख के साथ ही प्रेमचन्द जी का प्रतिवाद शीर्षक से सुधार सम्पादक श्री दुलारे लाल भार्गव के नाम प्रेमचन्द का पत्र भी छपा था। उन्होंने ‘शिलीमुख’ के आरोपों को इन शब्दों में स्वीकार किया था।
    प्रिय दुलारे लाल जी!
हमारे मित्र पं. अवध उपाध्याय तो ‘काया कल्प’ को ‘एटर्नल सिटी’ पर आधारित बता रहे थे। मि. शिलीमुख ने उनको बहुत अच्छा जवाब दे दिया। मैं अपने सभी मित्रों से कहा चुका हूं कि ‘विश्वास’ केवल हालकेन रचित ‘एटर्नल सिटी’ के उस अंक की छाया है। जो वह पुस्तक पढ़ने के बाद मेरे हृदय पर अंकित हो गया।.... छिपाने की जरूरत न थी और न है। मेरे प्लाट में ‘एटर्नल सिटी’ से बहुत कुछ परिवर्तन हो गया, इसलिए मैंने अपनी भूलों और कोताहियों को हालकेन जैसे संसार प्रसिद्ध लेखक के गले मढ़ना उचित न समझा। अगर मेरी कहानी ‘एटर्नल सिटी’ का अनुवाद, रूपांतर या संक्षेप होती, तो मैं बड़े गर्व से हालकेन को अपना प्रेरक स्वीकार करता। पर ‘एटर्नल सिटी’ का प्लान मेरे मस्तिष्क में आकर न जाने कितना विकृत हो गया। ऐसी दशा में मेरे लिए हालकेन को कलंकित करना क्या श्रेयकर होता?... फिर भी मेरी कहानी में बहुत कुछ अंश मेरा है, चाहे वह रेशम में टाट का जोड़ ही क्यों न हों?
-‘प्रेमचन्द’।
    प्रेमचन्द जी की ‘मोटेरामजी शास्त्री’ कहानी ‘माधुरी’ में छपने के बाद सवर्णवादी लेखकों-सम्पादकों के बीच कोई गदर नहीं मची थी। यह सब उस युग के बाजारवादी और उपभोक्तावादी संस्कृति का तमाशा भर था। इसे उसी दौरान प्रेमचन्द जी ने भी स्वीकार किया है, ‘इस होड़ के युग में अन्य व्यवसायों की भांति पत्र-पत्रिकाओं को अपने स्वामियों या संचालकों को नफा देने या अपने अस्तित्व बनाये रखने के लिए तरह-तरह की चालें चलनी पड़ती हैं। यूरोप वाले तो शब्दजाल या पहेलियों या लाटरियों का लटका निकालते हैं... हिन्दी में धन के अभाव से और ढंग से चालें चली जाती हैं। पत्र में किसी तरह का विवाद छेड़ दिया जाता है या कला के नाम पर अर्द्धनग्न चित्र दिये जाते हैं। (उत्तर प्रदेश: प्रेमचन्दविशेषांक जुलाई, 1980 पृष्ठ 106 सू. एवं ज.सं.वि.)। इसके अलावा प्रेमचन्द स्वयं भी सवर्ण ही थे। रही ब्राह्मणवादी लेखकों की घबराहट या हिन्दी के महारथी साहित्यकारों के गोलबंद आक्रमण की बात, तो इन्हीं ब्राह्मणवादियों ने प्रेमचन्द को सशक्त कथाकार बनने में सहयोग दिया। हिन्दी पुस्तक एजेंसी, गंगा पुस्तक माला जैसे प्रकाशन संस्थाओं के मालिक और ‘सरस्वती’, ‘माधुरी’, ‘सुद्दा’ के सम्पादकगण ब्राह्मण व सवर्ण ही थे। पं. दुलारे लाल भार्गव ने ही 1924 में उन्हें सबसे पहले लखनऊ बुलाया और अपनी बाल पत्रिका ‘बाल विनोद वाटिका’ का सम्पादक सौ रूपये मासिक पर नियुक्त किया तथा रहने हेतु मैक्सवेल प्रेस, लाटूश रोड (डाॅ. पाठक के सामने) की इमारत के पिछले हिस्से, जिसे गंगा फाइन आर्ट प्रेस हेतु किराये पर ले रखा था। अस्थाई रूप से साठ रूपये मासिक पर प्रबंध कर दिया। काफी समय वे वहीं रहे, फिर गणेशगंज चले गये। 1925 के आखिर में प्रेमचन्द्र बनारस वापस चले गये। अपनी आर्थिक दशा में सुधार न होते देखा फिर 1927 में ‘माधुरी’ में आ गये जहां 1930 तक रहे। पं. दुलारे लाल भागर्व सम्पादक, प्रकाशक, मुद्रक, कवि, लेखक और दुर्लभ हिन्दी सेवक थे। उन्होंने केवल प्रकाशन व्यवसाय नहीं किया वरन सैकड़ों लेखकों का परिचय हिन्दी जगत में कराया। जब निराला जी की ‘जूही की कली’, ‘सरस्वती’ से वापस हो गयी तो उसे ‘माधुरी’ में भार्गव जी ने ही छापा। निराला जी का पहला कहानी संग्रह ‘लिली’ से लेकर पं. अमृतलाल नागर तक का पहला उपन्यास भार्गव जी ने ही छापा था। उस समय लखनऊ में हिन्दी का परचम लहराने वालों के अग्रज थे पं. दुलारेलाल भार्गव। साहित्यकारों, पत्रकारों, नौकरशाहों और हिन्दी के दुलारों ने ही उस समय को हिन्दी का ‘स्वर्ण युग’, ‘दुलारे युग’ तक कहा है। पं. दुलारेलाल भार्गव ‘सुधा’, ‘माधुरी’ के अलावा ‘भार्गव पत्रिका’ के सम्पादक भी रहे। उनकी अनुपम कृति दुलारे दोहावली’ पर ओरछा नरेश की ओर से प्रथम देव पुरस्कार (अयोध्या सिंह जी उपाध्याय ‘हरिऔध’ द्वारा रचित ‘प्रिय प्रवास’ के मुकाबले) दिया गया था। सच यह है कि पं. दुलारेलाल भार्गव हिन्दी जगत के देदप्यिमान नक्षत्र हैं। इसे उस समय सभी ने मुक्त कंठ स्वीकार किया। बाद में हिन्दी का साफ और विशाल आकाश हिन्दी भाषियों ने ही अपने दंभ के बादलों से ढंक दिया। इससे भी आगे कहा जा सकता है कि अपनी मां को गाली देने वालों की जमात का बोलबाला हो गया।
    और अन्त में दो बातें। आधुनिक हिन्दी साहित्य का इतिहास बगैर पं. दुलारे लाल भार्गव के पढ़ाने वाले, हिन्दी साहित्य के साथ, नई पीढ़ी के साथ लगातार विश्वासघात कर रहे हैं। इन विश्वासघातियों को पहले पूरी ईमानदारी के साथ पं. दुलारेलाल भार्गव के बारे में पढ़ना, जानना चाहिए। यह भी देखना और समझना चाहिए कि सत्तर-अस्सी बरस पहले लखनऊ में हिन्दी जिस भव्य भवन में विराजमान थी आज उसे जर्जर किसने किया है? प्रेमचन्दजी अपने पारिवारिक मामलों में भी विवादित रहे। जबकि सच केवल इतना था कि यही उनकी शेहरत का कारण बनता। श्रीमती शिवरानी देवी से विवाह को लेकर भी तमाम हल्ला मचा।
    वास्तव में प्रेमचन्दजी विधुर थे और शिवरानी देवी विधवा। उस समय ऐसे विवाहों का चलन नहीं था। लेकिन यह विवाह आदर्श तो था ही। चुनांचे प्रेमचन्द अपमान के मित्र इसलिए रहे कि वे गरीबों, दलितों और तिरस्कृतों की जुबान थे।

बालिका वधू या वध?

‘बालिका वधू’ टी.वी. सीरियल की आनन्दी को बालिग होने के साथ ही तलाक के गहरे घाव की पीड़ा सहनी पड़ी। हाँ, उसके सास-ससुर ने उसे अपनी बेटी और ददिया सास ने पोती मान लिया है। अब वे उसका ब्याह उसी (जैतसर) जिले के कलेक्टर से करने की तैयारी में हांफते-दौड़ते दिखाए जा रहे हैं। इसी बीच उसका पति अपनी दूसरी पत्नी गौरी के झूठ से बिफरा हुआ अपनी पहली पत्नी को वापस पाने अपने घर आ गया है, और भावनात्मक षड़यंत्रों का तमाशा जारी है। फिर भी यहां एक सवाल है कि क्या टेलीविजन के रंगीन पर्दे पर दिखाई जाने वाली आनन्दी जैसी किस्मत देश की असल बालिका बधुओं की भी है? सच ‘सत्यमेव जयते’ से भी अधिक खतरनाक है। हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री की सलाह और खाप पंचायतों के फरमान से भी कहीं अधिक दर्दनाक है। भारत ही नहीं दुनिया के तमाम मुल्कों में बाल विवाह का प्रचलन है। इसके पीछे सामाजी शातिर अपराधियों का घिनौना षड़यंत्र सक्रिय है।
    गुजरात के वाडिया में पिछले दिनों सामुहिक बाल विवाह का आयोजन हुआ था। इसका उद्देश्य मात्र वेश्यावृत्ति था। वहां की एक सामाजिक कार्यकर्ता ने इसके विरोध में आवाज उठाई भी थी। ऐसे ही छत्तीसगढ़, राजस्थान, झारखण्ड, बिहार, उप्र, मणिपुर, उत्तराखण्ड, पूर्वोत्तर व दक्षिणी भारत के इलाकों के अलावा नेपाल की लड़कियां आये दिन महानगरों में नारकीय जीवन जीते मौत की गोद में समा जाती हैं। कई बार खबरें छपती हैं कि पुलिस ने नाबालिंग लड़कियों को दलालों के चंगुल से छुड़ाया। बावजूद इसके गरीबी और अंधविश्वास के चलते एक बड़ी आबादी लड़कियों (नाबलिग/किशोरी) से छुटकारा पाने का आसान तरीका ‘बाल विवाह’ अपनाते हैं।’ राजस्थान के श्रीरामपुर में आखातीज पर पांच साल की इमली का ब्याह 15 साल के अशोक से उसके माता-पिता ने कर दिया। ऐसे ही सात साल की राधिका को 20 साल के राजू से उप्र के बलरामपुर जिले के इटियाथोक इलाके में ब्याह दिया गया। बाल विवाह का प्रचलन ग्रामीण क्षेत्रों में अधिक है तो 15-16 साल की किशोरियों को ब्याहने का चलन शहरों में भी धड़ल्ले से जारी है। वह भी तब जब यह कानूनन अपराध है और सरकारें ‘बेटियां बचाओ’ का हल्ला मचाए हैं। पिछले ही महीने दुनिया भर में ‘गल्र्स डे’ मनाया जा चुका है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस-3) के हालिया आंकड़े बताते हैं कि देश में 47.4 फीसदी लड़कियों को 18 साल से कम उम्र में ब्याह दिया जाता है। इनमें 15 साल से भी कम उम्र में ब्याहने वाली किशोरियों की संख्या 18.5 फीसदी हैं।
    नाबालिग बच्चियों के साथ उनके माता-पिता और रिश्तेदारों के संरक्षण में लगातार बलात्कार हो रहे हैं। उसके नतीजे में वे समय से पहले मां बन रही हैं। वे नवजात बच्चे कुपोषण का शिकार होकर मर रहे हैं। युनिसेफ के अनुसार दुनियाभर में एक तिहाई किशोरियों के विवाह होते हैं, उनमें दस फीसदी बालिकाएं होती हैं। ये बालिकाएं बालिग होने से पहले ही अधिकांशतः मौत के मुंह में समा जाती हैं। क्योंकि वे गाली-गलौज, मारपीट और यौन शोषण का क्रूर शिकार होती हैं। इसके अलावा उनके असमय गर्भवती होने के कष्ट भी इसमें सहायक होते हैं। इनकी उम्र जब खेलने, पढ़ने की होती हैं तब वे अपनी ससुराल में सूर्योदय से पहले उठती हैं। पानी भरना, नहाना धोना, घर की साफ-सफाई, कपड़े धोना, खाना बनाना फिर सास के निर्देशित कामों को करना। आधा पेट भोजन करने के बाद थकी हुई बालिका को रात में पति के बलात्कार का शिकार होना आम है। ऐसे परिवार अधिकतर मिट्टी की कच्ची झोपडि़यों में या सीलन भरी कोठरियों में रहते हैं। जहां कहीं अच्छे मकान हैं वहां भी दुर्दशा कम नहीं है। मां बनने के दौरान कोई चिकित्सा सुविधा भी नहीं हासिल होती। क्योंकि ग्रामीण इलाकों में अस्पतालों का दूर-दूर तक पता नहीं होता। युनीसेफ की बाल संरक्षण विशेषज्ञ के अनुसार विकासशील देशों में गर्भावस्था के दौरान 10-14 साल की बालिकाओं के मारने की संख्या 20-24 साल की युवतियों की अपेक्षा पांच गुनी अधिक है। 15-19 साल की 50 हजार लड़कियां हर साल गर्भधारण के दौरान मारी जाती है।
    संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या फंड ने पिछले दिनों चेतावनी जारी की है कि ‘बाल विवाह बच्चियों के विकास, शिक्षा में जहां बाधक हैं वहीं उनका बचपन लूटनेवाला भी है। इस पाप कृत्य को रोकना होगा वरना अगले दस वर्षों में 5 करोड़ बालिका वधुएं होंगी। यदि यही हालात रहे तो 2030 तक दस करोड़ की संख्या में होंगी 15 साल से कम की गृहणियां।’
    आधुनिक दुनिया में हर तीसरी नाबालिंग लड़की को उसके मां-बाप द्वारा ब्याह दिया जाता है। युनीसेफ इस परम्परा को रोकने के लिए शैक्षणिक अभियान चला रहा है। बच्चियों की शिक्षा के लिए दूर-दराज इलाकों में स्कूल खोले जा रहे हैं। पिछले पखवारे ‘क्योंकि मैं एक लड़की हूँ’ योजना को भी जमीन पर उतारा गया है। इसी तर्ज पर उप्र में ‘पढ़ें बेटियां’, मप्र में ‘बेटी बचाओ’ अभियान चलाए जा रहे हैं। ग्लोबल दुनिया में 83 फीसदी लड़कोें की अपेक्षा महज 74 फीसदी 11-15 वर्ष की बच्चियाँ स्कूल जाती हैं। भारत की दशा इससे भी खतरनाक है। वहीं बांग्लादेश बाल विवाह के मामले में सबसे ऊँचे पायदान पर है। समूचे दक्षिण एशिया में 46 प्रतिशत तो सबशारान अफ्रीका में 37 प्रतिशत, लैटिन अमेरिका में 29 प्रतिश तो यूरोप में सर्वाधिक टर्की व जार्जिया में 14 प्रतिशत और 17 प्रतिशत बालि (नाबालिग) विवाह होते हैं। कहांनियां भी हैं, बेटी बचाओ, कन्या विद्याधन जैसी तमाशाई योजनाएं भी हैं, लेकिन बच्चियों को वधू बनाने की जगह विद्वान बनाने की ओर गंभीर सोंच राजनैतिक, सामाजिक क्षेत्रों में कहीं नहीं दिखती। बालिका को वधू बनाकर उसका वध करने की जगह उसे शिक्षित बनाने की ओर बढ़ना ही होगा, तभी सुसंकृत नई पीढ़ी का निर्माण संभव होगा।

सनातन ही है, शुभ

लखनऊ। 16 नवंबर से विवाह आदि शुभकार्य शुरू हो जाएंगे जो 11 दिसंबर तक जारी रहेंगे। इसके बाद धनु संक्रांति खरमास दोष है। इस बीच कुल 15 शुभ मुहुर्त हैं। नवंबर में दीपावली बाद 16, 17, 18, 23, 24, 29, 30 और दिसम्बर में 4, 5, 6, 7, 8, 9, 10, 11 तक ही विवाह संपन्न होंगे।
    इसी बीच तुलसी विवाह, हरि प्रबोद्दनी एकादशी व्रत, डाला छठ, कार्तिक स्नान व देव दीपावली पर्व होंगे। आजकल विवाहों और पर्वों पर पूजा पाठ व नियमों में काफी बदलाव आ गये हैं। जहां वैवाहिक कार्यक्रमों में वीडियों, फोटोग्राफी, डिस्को डांस और भारी भरकम साडि़यों/ड्रेसेस में सड़कों पर चलती बारात में नाचती युवतियों की मस्ती, वहीं कारों के काफिले और खाने के लम्बे-चैड़े दस्तरखान देखने को मिलते हैं। संस्कार और रस्मों-रिवाज, रिश्तों का दिखावा भर होता है। आठ घंठे के वैवाहिक कार्यक्रम में विवाह कार्यक्रमों को महज एक घंटे में निपटा लिया जाता है।
    पूजा पाठ में भी यही हाल है। वहां भी बदलाव की बयार ने काफी कुछ बदल डाला है। स्नान ध्यान और प्रणाम तो छोडि़ए अब आचमन और दीपदान से काम चल जाता है। बहुत हुआ तो अगरबत्ती जलाकर प्रसाद चढ़ाकर छुट्टी पा ली। अभी पितृपक्ष व नवरात्रि गये हैं। इनमें पितृपक्ष की परंपराओं का पालन करने वालों की संख्या बेहद कम दिखी। दुर्गा पूजा में पंडालों की सजावट भव्यता तो खूब थी लेकिन दर्शनार्थियों का रेला-मेला कहीं नहीं था। कहा पांच साल पहले तक राजधानी के लाटूशरोड, हीवेट रोड, गुरू गोविन्द सिंह मार्ग, हुसैनगंज में चलना मुश्किल था। यही हाल राम बारातों और रामलीलाओं का हो गया है।
    शायद यही कारण है कि एक भक्ति चैनल और कुछ आस्थावानों ने मिलकर निकट फरवरी में सनातन धर्म के गूढ़ ज्ञान की जानकारी देने के लिए भक्ति मेले के आयोजन की सोंची है। यह मेला लखनऊ में फरवरी तक संभावित है। इस मेले के जरिए युवाओं को धर्म का सत्य बताने के प्रयास होंगे। तिलक से वेद तक की व्याख्या का आनंद उठा सकेंगे श्रद्धालु। इसके अलावा सनातन ही शुभता का प्रतीक है का संदेश भी होगा यह मेला।

सही जवाब... टीवी चैनल बनेगा करोड़पति!

लखनऊ। छोटे पर्दे (टीवी) की जादुई दुनिया में सोनी टीवी चैनल के शो कौन बनेगा करोड़पति’ के जरिए बिहार के सुशील कुमार पांच करोड़ के विजेता बने तबसे लोगों का आकर्षण इस कार्यक्रम के प्रति काफी बढ़ा है। उससे भी अधिक उसके ब्रांड अमिताभ बच्चन के प्रति चाहत ने लोगों को उससे जोड़ा है। इसी कार्यक्रम में दर्शकों के लिए घर बैठे जीतिए ‘जैकपाॅट’ प्रतियोगिता में एक लाख और तुरन्त पूछे गए जैकपाॅट प्रश्न पर दो लाख इनाम पूछे गये प्रश्नों के उत्तर में सही जवाब देने पर हैं। सवाल टीवी के पर्दे पर एक-सवा घंटे के कार्यक्रम के दौरान दो-तीन बार उभरता है, जिसे अमिताभ बच्चन द्वारा दोहराया जाता है। बताया जाता है 24 घंटे तक फोन लाइने खुली हैं, डायल करें या एसएमएस करें। यहां बता दें एक एसएमएस पर पांच रूपए लगते हैं, वहीं फोन काॅल की दरें भी आठ दस गुनी अधिक वसूली जाती है। विजेता रैंडम के आधार पर चुना जाता है।
    गौरतलब है, कौन बनेगा करोड़पति 22 जनवरी 2007 से 19 अप्रैल 2007 तक सप्ताह में चार दिन स्टार प्लस टीवी चैनल पर एक घंटा प्रसारित किया जाता था। इसमें एक अन्य प्रतियोगिता हर सीट हाॅट सीट भी थी। इसमें कौन बनेगा करोड़पति के प्रत्येक दर्शक को भाग लेने का आमंत्रण था। इसके खिलाफ स्वयंसेवी संगठन ‘द सोसाइटी आॅफ कैटलिस्ट’ ने उपभोक्ता फोरम में शिकायत दर्ज कराई थी कि स्टार प्लस टीवी और भारती एयरटेल ने दर्शकों के मन में यह प्रभाव पैदा किया कि प्रतियोगिता में भाग लेना निःशुल्क था और इनाम की रकम संचालकों द्वारा दी जा रही थी। पर वास्तविकता इससे अलग थी। प्रतियोगिता के आयोजन की लागत तथा इनाम की रकम एयरटेल द्वारा दिये गये नंबर पर प्रतियोगियों द्वारा भेजे गए एसएमएस या टेलीफोन के खर्च में अन्तर्निहित थी व एसएमएस का खर्च भी सामान्य खर्च से अधिक था। स्वयंसेवी संगठन का तर्क था कि यह एक लाॅटरी थी क्योंकि इसमें पूछे जाने वाले प्रश्न साद्दारण थे और इसके तमाम जवाब देने वाले विजेताओं के बीच अंतिम रूप से विजेता का चयनरैडम आधार पर किया जाता था। यह प्रतियोगिता केवल टीआरपी बढ़ाने के लिए की गई थी। राष्ट्रीय उपभोक्ता फोरम ने मामले की जांच में पाया कि स्टाल प्लस टीवी और भारती एयरटेल को 5 करोड़ 80 लाख एसएमएस मिले जिससे 13 करोड़ 92 लाख रूपए आये। इस प्रकार सामान्य एसएमएस दर से कहीं अधिक उसे 8.12 करोड़ रूपये की आमदनी हुई। फोरम ने इसे धोखाद्दड़ी मानते हुए स्टार प्लस व भारती एयरटेल पर एक करोड़ रूपए का जुर्माना लगाया जिसे उपभोक्ता कल्याण निधि में जमा करने का आदेश दिया व 50 हजार रूपए वाद खर्च के रूप में स्वयंसेवी संगठन को देने के लिए कहा था। यहां बताते चलें कि आज भी सोनी टीवी पर चलने वाले ‘कौन बनेगा करोड़पति’ में जैकपाॅट प्रश्न के इनाम की रकम संचालकों द्वारा दी जाएगी, दर्शायी जा रही है। तमाम दर्शकों को तो इनाम की रकम अमिताभ बच्चन द्वारा दिए जाने का भ्रम है। क्योंकि जैकपाॅट विजेता के घर फोन करने और विजेता द्वारा उत्तर देने पर अमिताभ द्वारा कहा जाता है, आपने घर बैठों जैकपाॅट में एक लाख रूपए जीत लिए हैं। यदि आप दो लाख रूपए और जीतना चाहते हैं तो आपको एक प्रश्न का उत्तर और देना होगा।
    इसी तरह ज्योतिष व घरेलू उपयोग में आनेवाले सामानों का पूरा बाजार निजी टीवी चैनल चला रहे हैं। तंत्र-मंत्र, सास-बहू के षड़यंत्र, दवा, भोजन बिग-बाॅस और न जाने क्या-क्या दिखाया जा रहा है। इस सबसे निश्ंिचत सरकार अपना राजस्व बढ़ाने और उद्योग अपनी तिजोरी भरने की दौड़ में टी.वी. के पर्दे पर क्या दिखाया जा रहा है, से कोसों दूर है? 24ग7 के समाचारों में लड़ते नेता, डराते-धमकाते स्वामी, हिंसा, गाली-गलौज के अलावा मीडिया को कोसते ‘एडल्ट नेतागणों’ के असभ्य आचारण के अलावा अपराध की सनसनी, बेहूदा काॅमेडी व कमर मटकाऊ लटकों-झटकों को धड़ल्ले से दिखाया जा रहा है। निजी चैनलों की भरमार में विज्ञापनों की मारामारी और कार्यक्रमों की टीआरपी बढ़ाने के चक्कर में भारतीय संस्कृति पर भौंड़ा हमला जारी है। विज्ञापनों में औरत को लगभग नंगा करने की दौड़ में शामिल स्प्राइट कोल्डड्रिंक में रास्ता क्लीयर है -कैसे इसकी ले लूं मै’, ‘एक्स के परफ्यूम में औरत की अधनंगी छाती और पूरी नंगी टंागें दिखाई जाती हैं, हीरो-मांचा बेचने वाले चिडि़या/बुलबुल (लड़कियों) की तलाश के साथ प्रौढ़ा को गिद्ध बताते हैं, यूनीनार के प्रचार में चाट के ठेले पर बीबी साथ में है फिर भी छज्जे पर खड़ी लड़की को देख रहे हैं, साथ में स्लोगन बज रहा है -आशिक की मांग है ज्यादा, विज्ञापन घड़ी का नाचे लड़की, बनियान बेचते हुए लड़की से घर पर डिलेवरी करने जुम्ला बेहद सेक्सी अन्दाज में उछाला जा रहा है। गरम मसाला से लेकर कंडोम तक के विज्ञापनों में फूहड़ता परोसी जा रही है। और अमिताभ तो विज्ञापनों के ब्रांड हैं ही। बताते हैं कि अभिनेता/अभिनेत्री की एक विज्ञापन की कमाई एक फिल्म की कमाई के लगभग बराबर पड़ती है।

मारीशस की अभिनेत्री का अपने मायके में स्वागत

हमारे देश में अतिथियों को देवता की संज्ञा दी गयी है। ऐसी ही एक अतिथि बीते दिनों मारीशस से चल कर सोनाचंल स्थित राजा बलदेन दास बिड़ला इण्टर कालेज सलखन प्रांगण में जब पहुची तो उनकी अगवानी व स्वागत में सम्पूर्ण विद्यालय परिवार उमड़ पड़ा। बताते चलंे कि मारीशस की सुप्रसिद्ध भोजपुरी गायिका व अभिनेत्री हौसिला देवी रिसोल इन दिनों भारत की यात्रा पर आयी हुई हंै। बीते दिनों भोजपुरी संस्कष्ति शोध समिति के अध्यक्ष दीपक कुमार केशरवानी के विशेष बुलावे पर श्रीमती रिसोल एक दिन के लिए सोनांचल भी पधारी थी। उसी दौरान प्रधानाचार्य हरिशंकर शुक्ला के नेतष्त्व में विद्यालय परिवार की ओर से उनका जोरदार स्वागत व अभिनन्दन किया गया। छात्र-छात्राओं के आत्मीय स्नेह व स्वागत से अभिभूत सिने तारिका व भोजपुरी गायिका होसिला रिसोल अपने की रोक नही सकी और मंच से उठकर छात्राओं की टोली में जाकर पष्थ्वी माता की गोद में बैठ गयी। स्वागत व अभिनन्दन समारोह को बतौर मुख्य अतिथि अपने विचार व्यक्त करते हुये अभिनेत्री हौसिला देवी रिसोल ने कहा कि हमारे पूर्वज जब अंग्रेजो के बहकावे में आकर कलकत्ता से पानी के जहाज से मारीशस पहुचे तो अपने साथ एक लोटा, तुलसी का पौधा एवं भोजपुरी भाषा ले गये। वहां पहुचने पर दुख दर्द सहते हुये दिनभर कड़ी मेहनत के बाद रात को लोटा बजाकर भोजपुरी गीत गाते थे। धीरे-धीरे इसका असर वहां पर बसे ईसाईयों पर हुआ। श्रीमती रिसोल के अनुसार आज जब मारीशस स्वंस्त्र है और भोजपुरी भाषा को राजभाषा का दर्जा मिल चुका है बावजूद इसके यहां पर हर घर में भारतीयता की झलक दिखलाई देती है और मारीशस  क लोगन कअ यही नारा बा- ‘‘हमार गांव, हमार देश भारत नाहि हव परदेश’’ इस मौके पर श्रीमती रिसोल को सम्मान स्वरूप पुष्पहार, परमहंस आश्रम सक्तेशगढ़ के स्वामी अडगड़ानंद द्वारा रचित भजन किसका करे व श्रीमद् भगवत् गीता की टीका यर्थाथ गीता के साथ स्मष्ति चिन्ह भेटकर विद्यालय के प्रधानाचार्य हरिशंकर शुक्ला द्वारा सम्मानित किया गया। समारोह में प्रख्यात भोजपुरी कवि पं0 हरिराम द्विवेदी द्वारा काव्य पाठ एवं संगीतकार सरदार दयासिंह द्वारा माउथहार्गन पर ‘कौन दिशा में लेके चलारे बटोहिया’ (भोजपुरी धुन) व आओ बच्चो तुम्हंे दिखायकृ (देशभक्ति गीत) सुनाकर वाहवाही बटोरी। स्कूल की छात्र-छात्राओं ने गीत, भजन प्रस्तुत किया रिसोल छात्र छात्राओं के साथ पड़े की छांव में बैठकर अपनी गांव गाजीपुर की याद ताजा किया। कार्यक्रम में भोजपुरी माता की जय का नारा से सारा वातावरण गंूज उठा।
   प्रगतिशील लेखक संघ के अध्यक्ष मिथिलेश द्विवेदी ने कहा कि ‘आज हमारी गाजीपुर की बेटी लघु भारत के रूप में विकसित मारिशस की धरती पर रहते हुये भोजपुरी गीतो की खुशबू देश-विदेश में बिखेर रही हंै और भोजपुरी भाषा की सेवा करते हुये ‘‘गंगा माता’’ को साफ व स्वच्छ बनाने हेतु भारत में अभियान चला रखा है।
    वरिष्ठ पत्रकार व कैमूर टाइम्स पत्रिका के संपादक विजय शंकर चतुर्वेदी ने अपना विचार व्यक्त करते हुये कहा कि हौसिला जी का अपनी सरजमी पर हमे स्वागत करते हुये हर्ष हो रहा कि ये भोजपुरी भाषा को मारिशस में राजभाषा का दर्जा दिलाने के लिए संघर्ष की और इन्हें सफलता भी मिली। इस प्रकार इन्होनें अपने पुरखों की भूमि उ0प्र0 के गाजीपुर की मिट्टी का कर्ज अदा किया क्योंकि इनका बचपन इसी स्थान पर पेड़ो के झुरमुटो के छांव में खेलते कूदते बीता है। भोजपुरी संस्कष्ति शोध समिति के अध्यक्ष व सोनघाटी पत्रिका के संपादक दीपक कुमार केसरवानी ने कहा कि हमे गर्व है कि जिन गिरमिटिया मजदूरांे को अंग्रेज मारिशस में गन्ने की खेती कराने के लिए ले गये थे वे भारतीय आज शासन कर रहे है और भारतीय संस्कष्ति को अक्षुण्य रखे हुये है। भोजपुरी भाषा, साहित्य सूर, तुलसी की रचनाओ का गायन इनकी नित्य की परम्परा है और मारीशस के लोगो ने विश्व पटल पर यह साबित कर दिया कि भारत हमारी जन्मभूमि, मारिशस हमारी कर्मभूमि है। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता व समाजसेवी राजेश द्विवेदी ने कहा कि सोनभद्र में भोजपुरी साहित्य के शोद्द की असीम संभावनाएं है और हम चाहते है कि रिसोल अपने सहयोगियों के माध्यम से इस क्षेत्र के प्रचलित लोकगीतों, कथाओ व कहानियों पर शोध कार्य करके सोनाचंल का मान बढ़ाये हम इस कार्य में तन मन धन से सहयोग करेंगे। अन्तर्राष्ट्रीय भोजपुरी सम्मेलन के कार्यकारिणी सदस्य, वरिष्ठ पत्रकार सुल्तान शहरयार खां व अभय भार्गव ने अपनी मारिशस यात्रा का संस्मरण सुनाते हुये कहा कि हमारी मुलाकात हौसिला देवी से वहां पर राष्ट्रपति भवन में हुई थी जहां भोजपुरी भाषा के विकास व आन्दोलन पर चर्चा हुई थी। कार्यक्रम में संतोष सिंह चन्देल, पत्रकार सनोज तिवारी, तष्त्पी केसरवानी, हर्षवर्धन, फिल्म निर्देशक दिलीप सोनकर, प्रबोध मिश्रा, विद्यालय के छात्र-छात्रा, अध्यापक, अभिभावकगण, स्थानीय नागरिक उपस्थित रहे।

कुत्ते भी करते हैं किटी पार्टी और ब्याह!

लखनऊ। आवारा कुत्तों के झुंड के झुंड राजधानी की सड़कों पर, गलियों में, निर्माणाधीन भवनों में, खण्डहरों में, खाली पड़े मकानों व कूड़ाघरों में, पार्कों और गोश्त की दुकानों, बूचडखानों, बिरियानी-मुर्ग-मछली के ठेलों के आस-पास देखे/पाये जाते हैं। इन्हें कोई भी गंभीरता से नहीं लेता। यदि ये सेक्सक्रियारत होते हैं तो उन्हें मार भगाने से लेकर उनके संवेदनशील सेक्स उपकरण पर लाठियों से प्रहार तक किए जाते हैं। इसके पीछे समाज का घिसा-पिटा तर्क ‘अश्लीलता’ होता है। जबकि यही समाज अपने प्यारे ‘डाॅगी’ को ‘सेक्स मीटिंग’ कराने बड़े फख्र से ले जाता हैं। आवारा कुत्तों की शादियों का मौसम ‘कातिक’ में बताया जाता है। इसकी गवाही में उतरती सर्दियों में उनके बच्चे पैदा होने को रखा जाता है। इस लिहाज से यह मौसम उनकी शादियों या ‘मीटिंग’ का है।
    आमतौर पर पांच-सात कुत्तों के झुंड में एक मादा होती है और उसी को लेकर सबके सब लड़ते-झगड़ते देखे जाते हैं। जबकि यह महज वर्चस्व की जंग होती है, जो जानवरों में आम बात है। जानवरों के डाॅ. एस. नार्मन के अनुसार कुत्ता बेहद समझदार जानवर होता है। वह भी आपसी सहमति पर विश्वास करते हैं, उनमें भी सामाजी भावानाएं काम करती हैं तभी तो उनके इलाके/मोहल्ले तक होते हैं। एक इलाके के अकेले कुत्ते पर दूसरे इलाके के कुत्ते गुर्राने (शुरूआती पूंछताछ) के साथ हमलावर तक हो जाते हैं। उन्हें भी शोहदों/चोरों का भय होता है। आप गौर से देखिए खण्डहरों/पार्कों में पसरे या दावतों के आस-पास मंडराते कुत्ते किस तरह भाईबंदी दिखाते हैं। ये भी आपसी समझौते के तहत ‘लिव इन रिलेशन’ बना लेते हैं या एक ही मादा के साथ पूरा जीवन गुजार देते हैं।’ ऐसा पक्षियों और अनेक वन्य जीवों में भी देखा जाता है।
    गौरतलब है, देश में 2.5 करोड़, दिल्ली में 3 लाख और लखनऊ 40 हजार आवारा कुत्ते होने का आंकड़ा पेट्स पर काम करनेवाली संस्था यूरोमाॅनीटर ने पिछले दिनों जारी किया था। वहीं इनके काटने से अकेले उप्र में हर साल लगभग 16 लाख लोग वैक्सीन के इंजेक्शन लगवाते हैं। उप्र में वैक्सीन खरीदने का बजट 2010-11 में 44 करोड़, 2011-12 में 52 करोड़ था। पेटा और पाॅ जैसी संस्थाओं ने आवारा कुत्तों पर काफी काम किया है। उनके ही एक सदस्य के मुताबिक वे भी किटी पार्टी, सामुहिक भोज के साथ शान्ति से सेक्सक्रिया में विश्वास रखते हैं। यह तो इंसान है जो उन्हें दुत्कारता रहता है जिससे वे आक्रमक रूख अपना लेते हैं। वहीं पालतू कुत्तों का आचरण देखिए उनमें कहीं उग्रता नहीं होती।
    कुत्ते पालने वाले अपने ‘पॅपी’ या ‘डाॅगी’ के मनोरंजन व जीवनसाथी के लिए खासे सचेत रहते हैं। उन पर 10 से 30 हजार रूपये महीने तक खर्च करते हैं। उनके लिए किटी पार्टी आयोजित कराते हैं। उनकी शादी व बच्चों के पैदा होने के जश्न गए जमाने के ‘गुड्डे-गुडि़यों’ की शादी से भी अधिक धूमधाम से मनाए जा रहे हैं। पेट स्पेशालिस्ट डाॅ0 उमेश जी कहते हैं कि ‘पेट के लिए किटी पार्टी आयोजित करने या उनमें ले जाने से उनके व्यवहार में बदलाव आता है। हर गेट-टू-गेदर में वे अपने जैसे साथी से मिल पाते हैं, मस्ती करते हैं। उनका अकेलापन दूर होता है और अपनी मादा भी तलाश कर रोमांस और शादी तक पहुंच जाते हैं।’ कुत्ते पालने वाली महिलाएं कुत्तों को लेकर काफी संजीदा रहती हैं। युवतियां तो उनके लिए हद दर्जे तक भावुक और सारी खुशियां जुटाने में आगे रहती हैं। सुनने में आश्चर्यजनक लगे लेकिन है सच, डाॅगीशादी, पेटशादी, कैन्डीरोमियो जैसी साइडे इंटरनेट के साथ महानगरों में धड़ल्ले से फल-फूल रही हैं, जो बाकायदा हजार से पांच हजार रूपए में आपके कुत्ते का पंजीकरण कर उसके लिए जीवन साथी तलाश कर ‘मीटिंग’ कराने का काम कर रही हैं। ऐसे में आपको भी कुत्तों की बारात में जाने या रिशेप्शन पार्टी का निमंत्रण कभी भी मिल सकता है। जी हां, महानगरों में यह इज्जतदार व्यवसाय और स्टेटस सिंबल बन रहा है। लखनऊ भी इससे अछूता नहीं है। इन कुत्तों के लिए पार्लर/सैलून खुलने के साथ बजाज आलियांज के अलावा कई इंश्योरेंश कंपनियां लाखों रूपयों की पाॅलिसी तक करती हैं। यूरोमाॅनीटर इंटरनेशनल के अनुसार कुत्तों के पालने के चलन बढ़ने के साथ इनसे जुड़े कई कारोबार खड़े हो रहे हैं। इनमें पशु आहार, पशु चिकित्सा, पशु फैशन, व्यवसाय अरबों रूपयों का हो रहा है। सरकार को अभी तक महज कुत्ता पालने के लाइसेंस से ही राजस्व मिलता था, लेकिन अब पांच अरब के राजस्व की संभावनाएं कुत्तों से जुड़े कारोबार के चलते बढ़ गई हैं। आयकर विभाग इस ओर खासी रूचि दिखा रहा है।
    आवारा कुत्तों पर काम करने वाले श्री वी.एस. तिवारी के अनुसार यदि इनके साथ प्यार से पेश आया जाए तो यह बड़े काम के सिद्ध हो सकते हैं। इन्हें अपराध रोकने से लेकर चैकीदार तक का रोजगार देकर इनका उपयोग किया जा सकता है। यह काम नगर निगम और पुलिस विभाग आसानी से अंजाम दे सकता है।

उल्लू देवो भवः

लक्ष्मी की पूजा और उल्लू को प्रणाम। पुण्य लक्ष्मी का पूजन शुभ मुहूर्त देखकर, तो पाप लक्ष्मी और उल्लू को नित प्रणाम। उल्लू देवता है। उल्लू हमारा नेता है। उसी के नेतृत्व में हम आर्थिक विकास के ‘राम मंदिर’ का निर्माण करने का समाजवादी शंखनाद करके घोषणाओं के प्रसाद का जूठन आदमी के आगे फेंकने का पुण्य कमाते चले आ रहे हैं। पाप लक्ष्मी की इएमआई के जरिए समूचे बाजार पर उल्लू भक्तों का बोलबाला है। इसी वजह से गांधी, अम्बेडकर, लोहिया के फर्जी पुत्र और रामभक्त अमीरी के पहले पायदान पर पसरे हैं।
    65 बरसों में देश में मौजूद (1947 में) 1600 करोड़ की संपदा भंडार की जगह 345.8 अरब डाॅलर का विदेशी कर्ज आ गया। महज 35 साल पहले देश के 20 बड़े घरानों की कुल संपत्ति 5 हजार करोड़ थी। आज अकेले मुकेश अंबानी 1050 अरब रूपयों (21 अरब डाॅलर) के मालिक हैं। 10 बड़ों की कुल संपत्ति 109.3 अरब डाॅलर है। 1950 में प्रति व्यक्ति आय 247 रुपए थी तो आज 5 हजार रूपए है। आजादी के तुरन्त बाद गरीबी की रेखा के नीचे आधी से अधिक आबादी यानी 19 करोड़ लोग थे, तो आज 36 करोड़ लोग हैं। देश में गरीबी-अमीरी का मौसम काफी बदल गया है। आज उम्मीदों के दीपक दप-दप करते इंडिया गेट से लेकर गांव के बाजारों तक उजियारा फैलाने को बेचैन हैं। पूर्णमासी और अमावस्या की रातों को एक साथ पूजने वाले देश में माटी और मुद्रा की लड़ाई और तेज हुई है। भले ही फुलझडि़यों की हंसी ठहाकों में बदल रही है, लेकिन माटी के श्रीगणेश-लक्ष्मी की जगह पूजा की अलमारी में जस की तस है। अम्मा जरूर घर-गांव के कुंए की तरह बिला गईं हैं, मगर मम्मी जी... माॅम.. वाॅटर पार्कों में अनार दगा रही हैं। बेबी-बाबा के साथ उनका हर दिन धनतेरस और हाय.. हसबेंड के साथ हर रात दिवाली।
जीभ और जांघ के उद्दंड बाजार की तेजी ने पर्वों और मेलों का संेसेक्स काफी नीचे ला दिया है। एक तू... एक मैं ही ‘जिहाद’ है, बाकी सारा परिवार ‘आतंकवाद’ के इंकलाबी परचम तले शहरी फ्लैट, कालोनियां आबाद हैं, तो अलाय-बलाय गांव-खेत में डाल हरऊ-घुरऊ शहर में मोबाइल थामे साहब अस बतियाए रहें...। कहां हैं इंतजार करती कहावत ‘करवा हैं करवारी है, तेहिके बरहें रोज देवारी...? यहां तो हर दिन दीवाली हैं। हर रात दीवाली है। जभी देश में चार पहिया वाहनों की वेटिंग 8 लाख के आस-पास है, तो गए साल 2520421 वाहन बिके थे। इस धनतेरस अकेले लखनऊ में डेढ़-दो अरब के दो-चार पहिया वाहनों के बिक जाने का अन्दाजा है। फिर भी पेट्रोल के महंगा होने की चीख-पुकार? महलों में 18 गैस सिलेंडरों पर सिर्फ चाय उबल रही है और मंझोली रसोइ में एक का भी जुगाड़ नहीं? अजब उलट-पुलट है, गई अक्षय तृतीया के दिन लखनऊ वालों ने 25 करोड़ का सोना खरीदा था। गई दिवाली में 1 अरब 6 करोड़ का सोना-चांदी, 80 करोड़ के वाहन, 40 करोड़ की मिठाई, 35 करोड़ का इलेक्ट्रानिक, 3 करोड़ के बर्तन, 7 करोड़ के पटाखे, 15 करोड़ की पतंगे खरीदे गये, तो 10 करोड़ एसएमएस मंे खर्चे और 60 करोड़ का स्टाक कारोबार महज पौने दो घंटों में कर डाला। कुल 3.56 अरब की दीवाली 2011 में लखनउवों ने अकेले मना डाली। देश भर मंे काले पैसे सहित क्या खर्च हुआ होगा? वह भी तब, जब एक महीने पहले ही महंगाई 7 फीसदी ऊँची छलांग लगा चुकी थी और सब्जियों के भाव आसमान पर थे। आटा 16 रू0 किलो बिक रहा था।
    माटी के दिये के आंकड़ों पर अभी श्वेत पत्र जारी होना है। डिजाइनर दिये और फैशनेबल मोमबत्तियों के साथ चाइनीज इलेक्ट्रानिक नूडल्स (बिजली की झालर) का बिग बाजार रौशनी बेच रहा है। गजब विरोधाभास है, अकेले अपने यूपी में 63 फीसदी घरों में ढिबरी/लालटेन रौशन हैं। 37 फीसदी बिजली जलाने वालों की जगमगाहट के बयान उपभोक्ता परिषद में दर्ज हैं। उपभोक्ता क्रांति के नाम पर देशवासी 31.9 फीसदी कपड़ों, जूतों पर व 36.3 फीसदी नई तकनीकी पर खर्च कर रहे हैं। लगातार अमीरों की संख्या में इजाफा हो रहा है। 2011 में 2,10,000 करोड़पति थे, अगले लोकसभा चुनावों तक 4 लाख की गिनती हो जाएगी। रिजर्व बैंक के ताजा आंकड़े बताते हैं कि देश में पैसा बचाने में मुंबई नंबर एक है तो लखनऊ नंबर नौ और पटना नंबर ग्यारह के पायदान पर है। वहीं खर्च करने में भी आगे हैं। शहर में प्रति व्यक्ति औसत मासिक खर्च लगभग 21 सौ रूपए तो ग्रामीण क्षेत्र में 12 सौ रूपए है। रही नकद पैसे के जेब में होने की बात तो हम दुनिया में चैथे नंबर पर हैं। शहरों की चमक-दमक में 38 करोड़ लोग मस्त हैं, तो गांवों में साढ़े तिरासी करोड़ लोग सुविधा-असुविधा, महाजनी व्यवस्था और नवपूंजीवादी नखरों के बीच जी रहे हैं। इन्हीं गांवों में रोज दो-तीन किसानों के आत्महत्या करने के भी आंकड़े हैं। आटे का घोल पीकर जीने-मरने वालों की संख्या भी कम नहीं है। भूख के आंकड़े बताते हैं कि 79 देशों में भारत 65वें सथान पर तड़प रहा है। आंकड़ों के आग की आँच बहुत तकलीफदेह है। फिर भी दिवाली हर साल आती है। इस साल भी आई है। अमावस्या की रात के अंधेरे को मुंह चिढ़ाती इठलाती रौशनी आयेगी। आयेगी ही नहीं नाचेगी, गाएगी और चिरागों का समाजवादी हल्ला भी रहेगा। पटाखों के जागरण का जयकारा भी गूंजेगा।
    गो कि दीवाली में ‘शगुन’ का मरद भले ही गांव न पहुंचे, लेकिन ‘मैडम’ की दीवाली का सूरज रात भर बांटेगा सौगतें। ‘लक्ष्मी’ के डांस के साथ ‘विष्णु’ उपहारों के पैकेट अतिथिदेवों को पकड़ाता रहेगा उत्सव की चैखट पर खड़ा होकर। आसमान पटाखों की रोशनी की अगवानी में थोड़ा और झुकेगा, तो नीचे ‘ओम जय लक्ष्मी मइया...’ की आरती के बोलों के साथ ‘सब कुछ छोड़-छाड़ के अनारकली चली अपने सलीम की गली...’ का टंटा भी सुनाई देगा। रोशनी की जगर-मगर में इक्का...बादशाह...गुलाम सबके सब उल्लुओं की सेवा में जगराता करते रहेंगे। और बचीं अकेली अम्मा, वो अपनी ममता के घाव खारे आँसुओं से सेंकती अतीत की वापसी की प्रतीक्षा में गुमसुम बैठी रह जाएंगी। शुभकामना और मुबारक.. की शहनाई इस दीवाली ‘अयोध्या’ में तो नहीं ही बजेगी। और कहां बजेगी...?