लोकनाथ द्विवेदी ‘सिलाकारी’
कविवर पं0 दुलारे लाल जी भार्गव की इस श्रेष्ठ रचना ‘‘दुलारे दोहावली’’ में सब मिलाकर दो सौ आठ दोहे है- (1) गणेश प्रार्थना (2) राधा कृष्ण विनय (3) रमापति विनय (4) मातृ-भूमि वन्दना (5) कवि धर्म (6) वीर रस के लिए कवि प्रार्थना (7) कला और (8) सरस्वती वन्दना। इसके बाद मुख्य ग्रंथ प्रारंभ होता है। इन दोहा रत्नों को कवि ने यत्र-तत्र बिखेर कर रखा है।
दुलारे दोहावली जिस रचना प्रणाली पर लिखी गई है, उनके अनुसार यह साहित्य शस्त्र की दृष्टि से एक ‘‘कोण’’ है, जिसमें 208 दोहे रत्न यत्र-तत्र अपने ही आप में पूर्ण रहकर अपनी कमनीय कांति प्रदर्शित कर रहे है। साहित्य - शस्त्र में विवेचकों ने एैसे ‘‘पद्म रत्नो’’ को ‘‘ मुक्तक‘‘ कहा है। पत्रात्मक काव्य के प्रधानतया दो भेद हंै। (1) प्रबन्ध-काव्य (2) मुक्तक-काव्य। प्रबंध-काव्य में कवि एक विस्तृत कथानक का आश्रय लेकर काव्य-रचना करने के लिए एक विशाल क्षेत्र चुन लेता है। उसे काव्य को एक विस्तृत क्षेत्र में यथास्थान भर देने की पूर्ण स्वतंत्रता रहती है। उसका काम अमिधा से निकल जाता है, और कथानक की रोचकता के कारण उसमें मनोरमता रहती है। मुक्तक कार का क्षेत्र बहुत ही सर्किण रहता है, उसी में उसको अपना संपूर्ण कथानक ध्वनि से गंभीर अर्थ -पूर्ण शब्दों में, झलकाना पड़ता है। जहां प्रबंध-काव्य में छंद श्रंृखला संबद्ध रहने के कारण आगे-पीछे के पद्यों का सहारा लेकर अपनी रचना कर सकते है, वहाँ मुक्तक-छंद को स्वंतत्र रूप से एकाकी रहकर अपना गौरवपूर्ण प्रबन्ध के सामने स्थापित करना पड़ता है। इसीलिए खंड काव्य, महाकाव्य आदि लिखने की अपेक्षा मुक्तक लिखना महत्वपूर्ण है।
यह सत्य है कि मुक्तक की रचना काव्य-कला कुशलता का चरम आर्दश है। एक पूरे प्रबंध(ग्रंथ) में कवि को विस्तृत कथानक का आश्रय लेकर रस स्थापना का जो कार्य करना पड़ता है, वही कार्य एक छोटे से मुक्तक में कर दिखाना विलक्ष्य काव्य रचना सामथ्र्य की अपेक्षा रखता है। कथानक का विस्तृत वर्णन न करके अर्थात् उसका आश्रय न लेकर एक छोटे से छंद में इतना रस भर देना कि अगली-पिछली कथा का आश्रय लिए बिना ही उसके आस्वादन से तृप्त हो जाय, सचमुच में आसाधरण प्रतिभा का काम है। एक ही स्वतंत्र पद्य में विभाव, अनुभव और संचारी भावों से परि-पूर्ण रस का सागर लहराना, एक सम्पूर्ण आख्यायिका को थोड़े से ध्वन्यात्मक शब्दों में भर दिखाना, कथन-शैली में एक निराला बाँकपन एक निराला चमत्कार पैदा करना, उपमान उपमेयों द्वारा समान दृश्य दिखलाकर भावसाधम्र्य अथवा भाव-वैधम्र्य के आलंकारिक वेश को सजाना और सबके ऊपर दो देश-काल-पात्र के अनुकूल, स्वाभाविक प्रवाहमयी, अलंकारिक और मुहावरेदार, अर्थमयी, नपीतुली, भावानुकुल प्रांजल भाषा का सहज-सुकुमार प्रयोग करना सचमुच भारी क्षमता का काम है। मुक्तक की रचना प्रधानतया व्यंग-प्रधान उत्तम-काव्य में होती है। मानव स्वभाव का सूक्ष्मातिसूक्ष्म विश्लेषण करना और प्रकृति पर्यवेक्षण एवं प्रकृति की अनुभूति के साथ गहन से गहन निगूढ़ रहस्यों का उद्घाटन करना मुक्तकों की रचना का आर्दश होता है। पं0 पद्मसिंह शर्मा ने ठीक ही लिखा है-
‘‘मुक्तक की रचना कविता शक्ति की पराकाष्ठा है। महाकाव्य, खंड काव्य या आख्यायिका आदि में यदि कथानक का क्रम अच्छी तरह बैठ गया, तो बात निभ जाती है। कथानक की मनोहरता पाठक का ध्यान कविता के गुण दोष पर नहीं पड़ने देती है। कथानक कथा-काव्य में हजार में दस-बीस पात्र भी मार्के के निकल आए, तो बहुत है। कथानक की सुन्दर सघटना, वर्णनशैली की मनोहरता और सरलता आदि के कारण कुल मिलाकर काव्य के अच्छेपन का प्रमाणपत्र मिल जाता है। परंतु मुक्तक काव्य की रचना में कवि को गागर में सागर भरना पड़ता है। एक ही पात्र में अनेेक भावों का समावेश और रस का सानिध्य सन्निवेश करके लोकोत्तर चमत्कार प्रकट करना पड़ता है ...... इसके लिए कवि का सिद्ध सारस्वतीक और वश्यवाक् होना आवश्यक है। मुक्तक की रचना में कवि को रस की अक्षुण्णता पर पूरा ध्यान रखना पड़ता है, और वही कविता का प्राण है।
(सतसई संजीन भाष्य भू0भा0)
यद्यपि यर्थाथ में रसमय काव्य ही काव्य है, पर कुछ ऐसे काव्य भी लिखे जाते है, जो नीति एवं धर्म आदि के उपदेश को प्रधानतयः प्रतिपादित करने वाले होते है। इनमें वसुधा रस का अभाव रहता है। सुभाषित मात्र इनमें रहता है, जिसमें केवल वास्वैदरध्य का चमत्कार होता है। मुक्तक भी इस पर बहुतायत से लिखे जाते है। ऐसे सूचित प्रधान मुक्तकों की रचना नीति और धर्म आदि के उपदेश देने के उददेश्य से की जाती है। इनमें भी कथन शैली का बाॅझ-पन और शब्द-चमत्कार का समावेश होना आवश्यक होता है, क्यांेकि इनके बिना सुचि प्रदान उषम मुक्तक नही रखें जा सकते। रस को छोड़कर अन्य काव्याँको का समुचित समावेश इनमें अत्यन्त संक्षेप में करना पड़ता है।
काव्य की अभिव्यत्ति सर्वोत्कृष्टतया व्यंग में होती है, इसलिए अनेक साहित्य रीति ग्रंथकार महापति विवेवकों ने व्यंग प्रधान काव्य को श्रेष्ठता दी है। बहुत से आचार्य और आगे बढ़ गए है, इसकी अभिव्यत्ति के लिए भी सबल होने के कारण ध्वनिमय व्यंग को काव्य की आत्मा घोषित किया है। इस प्रकार की रस-ध्वनि-पूर्ण काव्य रचना करने वाले ही महाकवि कहलाते है। यह व्यंग में ध्वनि से उसी प्रकार झलकता है, जिस प्रकार अंगना का लावण्य उसके शरीर से। धुरंधर काव्य मर्मज्ञ आनंदबर्द्धनाचार्य लिखते है--
प्रतीयमान पुनरन्वदेव,
धरूत्वाषित वाणीषुँ महाकवीनाम्;
यतत्प्रसिद्धवयवातिरिक्त,
विभाति लावण्यभिवांगनामु।।
(ध्वन्यालोक)
‘‘महाकवियों की वाणी में काव्य अर्थ एक ऐसी चमत्कार वस्तु है, जो अंगना के अंग मे हस्तपादादि प्रसिद्ध अवयवों के अतिरिक्त लावण्य की तरह चमकती है।’’
दुलारे-दोहावली के मुक्तक
इस प्रकार के मुक्तक और वे भी रस ध्वनि और भावानुगामिनि उत्कृष्ट काव्य-भाषा से युक्त, दुलारे-दोहावली में, यत्र-तत्र बिखरे हुए देख पड़ते है। यद्यपि ऐसा जान पड़ता है कि दोहावली में आदि से अंत तक कोई क्रम नही है, क्योंकि प्रत्येक पद्य मुक्तक होने से स्वतंत्र है, फिर भी विषय विचार की दृष्टि से दुलारे दोहावली में क्रम है, जो ध्यान से देखने पर मालूम हो जायगा। दोहावली के ये दोहे भाषा और भाव की दृष्टि से परमोत्कृष्ट हुए है। ‘सूक्ति’ के दोहे भी बड़े चुटीले और अनूठे काव्य के उदाहरण है। उनमें भी कथन शैली के तीखेपन के साथ माधुर कसक पूर्ण बांकपन पाया जाता है। इस दोहावली को सूक्ष्म तथा गहन दृष्टि से देखने पर गागर में सागर दिखलाई पड़ने लगता है। इतने विषयों को, इतने थोड़े में, इतने अनूठे ढंग से, सरल काव्य में लिखना और उनमें भी एैसा कुछ लिख जाना, जो बड़े-बडे़ विद्वान व्यक्ति भी न लिख सके थे, सचमुच असाधरण प्रतिभा का काम है। हमारे दोहावलीकार ने ऐसा ही किया है।
गागर मे सागर
इस एक ही छोटे काव्य कोष में इतना भर देना यह सिद्ध करता है कि इसके पूर्व रचयिता ने बहुत कुछ देखा-भाला है, और उसका हृदय असंख्य अनुभूतियों का आगार बन चुका है। इसमें कवि ने जिस विषय को उठाया है, उसका बड़ा ही सच्चा, अनुभूत, हृदयग्राही और भावभायी चित्र, अत्यंत मनोरम, भावानुगामिनी भाषा में उपस्थित कर दिया है। सजीव कल्पना मूर्तियों द्वारा शाश्वत प्रकृति अंतरग और बहिरंग का रमणीय वर्णन साहित्य शस्त्रानुमोदित उत्कृष्ट कवि कौशल से करने में दुलारे-दोहावलीकार को अभिनंदनीय सफलता मिली है। विशुद्ध भारतीय भावनाओं को मानव प्रकृति को ग्राह, विशद कलात्मक रीति से उपस्थित करने में कवि का कौशल देखते ही बन पड़ता है। इस काव्य-कोष में ऐसे अनमोल मुक्तक रत्न हंै, जिनका मूल्य आंकना बडे़-बड़े जौहरियों का ही काम है। इसमें कवि का प्रकृति-पर्यवेक्षण और विशाल अनुभव स्पष्टतया परिलक्षित होता है।
दोहावली के बहुदर्शिता
स्मरण रहे, केवल पद्य लिखने लगना ही कविता करना नही है। कवि का संसार ज्ञान बड़ा विस्तृत होता है। वह मनुष्य स्वभाव का पारखी होता है। उसकी दृष्टि के सम्मुख प्रकृति का रहस्य खुल जाता है। उसकी कल्पना मत्र्य से स्वर्ग और स्वर्ग से मत्र्य तक अबाध गति से विचरण करती है। दुलारे-दोहावली के प्रणेता को अनेक कलाओं और शास्त्रों की जानकारी हमें आश्चर्यचकित करती है।
इस दोहावली में व्याघिन का मृग को शेर से मारना और जाल में रखकर ले जाना, चंद्रमा के सम्मुख कमल का संकुचित हो जाना, अडि़यल घोड़े को लगाम खीचतें रहने एवं चाबुक चलाते रहने पर भी एक ही स्थान पर अड़े रहना, चंद्रोदय से कुमुदिनी का विकसित होना, चरसे से पानी का रूक रूककर जल देना, झरने का अविश्रांत प्रपात, पराजित नृपति का भागना और दुर्ग में पनाह लेना, आकाश से तारों का टूट कर गिरना और अमंगल की सूचना देना, बंशी डालकर मछली को फंसाना, कूंची चला कर पट पर चित्र चित्रित करना, चकमक पर लोहे की चोट देकर सूत में आग झाड़ना, बरसते हुए बादल को चीरकर ऊपर चढ़ जाना स्वास्थ्य का सम्पूर्ण सुखों का एकमात्र साधन होना, आत्मज्ञान से ‘‘ सर्व खल्विद ब्रम्ह’’ के भाव की प्राप्ति होने पर शाश्वत आनन्द, चुगल-खोरों की काली करतूत, झंझावात से उपवन का नाश, हवा से तरू का उखड़ जाना, खस की टट्टी से लुओं का शीतल-मंद-सुगध होना, रजनी-गंधा का रजनी में ही सुवास देना, अंबर-बेलि से तरू का शुष्क होना, मटके में मछलियों का कूदना और फंसना अंध-बिंदु के सामने पड़ने पर कोई भी वस्त्र का दिखलाई देना, हीरे की बहुमूल्यता उज्जवलता और कठोरता, बिना तार के तार से समाचारों का चुपचाप जाना और आना, मूर्छित स्वर्ण का कुरंड कण से आबदार बनना, भूकंप सुदृढ़ गढ़ का ढह जाना, आयात पर तट कर लगाकर देश की आर्थिक दशा को सुधारना, ज्वार से सिंधु में बाढ़ आना, शत्रु के प्रबल आक्रमण से भय- विह्वल हो नारियों का व्रत-रक्षणार्थ जौहर करना, छली ठगों का मूचर््िछत कर छलना, डाल पर झूला डाल कर पटली पर झूलना, तंत्री का रूधिर राग रागना, आतिशी शीशी का आँच खाकर भी यथापूर्व रहना, कर्ण का दान, भामाशाह त्याग त्रिशंकु की गति, हरिशचन्द्र की सत्यप्रियता, संध्या-समय पथिक का भटियारी के यहां विश्राम, संपूर्ण नगर के दीपकों का बिजली से जल उठना ब्रम्ह होकर अहंकार खो बैठना, आत्मसमर्पण करने वालों का समर्पण केतु दिखलाना, जल अति का घूम-घूमकर चपलता से एक ही ओर तैरना आदि-आदि अनेक वर्णन हैं, जिनसे कवि के व्यापक ज्ञान और पाँडित्य का परिचय प्राप्त होता है।
दोहावली में काव्यांग
दुलारे दोहावली में अनेक काव्यांगांे के बहुत ही आकृष्ट और विशुद्ध उदाहरण पाए जाते है। यहां कुछ का उल्लेख करना अप्रासंगिक न होगा। निम्नलिखित उदाहरणों से कवि का काव्य-रीति का मार्मिक ज्ञाता होना सूचित होता है। निम्नलिखित उद्धरणों में लाक्षणिक पद्धति का मनोमोहक चमत्कार दर्शनीय है--
पर्वानुरागांतगर्त अनुढ़ा की अभिलाषा दशा--
गुरूजन लाज लगाम, सखि सखि हू निदरि।
टरत न प्रिय मुख ठाम, अरत अरीले दृग-तुरग।
कलहांतरिता:
नाह-नेह-नभ तें अली, टारि रोस कौ राहु
प्रिय मुख चंद दिखाई प्रिय, तिय कुमदिनि बिकसाहु।
व्य-संधि:
नख-सिख देस लायौ चढ़न, इत जोबन-नरनाह
पदीन चपलई उत लई, जनु दृग-दुरग पनाह।
विरह-निवेदन
झपकि रही, धीरै चलौ, लेहु दूरि तें प्यार,
पीर-दब्यौ दरके न उर-चंुबन ही के भार।
प्रवत्स्यत्पतिका
तन-उपवन सहिहै कहा, बिछुरन-झंझावत,
उरयौ जात उर-तरू जबै चलिबे ही की बात।।
आगतपतिका:
मुकुता सुख अंसुआ भए, भयौ ताग उर प्यार,
मन-सूई ते गूंथि जनु, देति हार उपहार।
रूपकातिशयोक्ति-अलंकार
खिलैं अनेक सुभग सुमन, सुमन न नेक पत्याय,
अमल कमल ही पै मधुप, फिरि-फिरि फिरि मंडराय।
व्यतिरेक:
दमकति दरपन दरप दरि, दीपशिखा दुति देह,
वह दृढ़ इकदिसि दिपत, यह मृदु दस दिसनि स-नेह।
मैनंे-ऐन तव नैन, सौहें सरसिज-से सुभग,
ए बिकसित दिन-रैन, वे बिकसित बस दिवस हीं।
तेज तुरंग तुरंग तैं, इतौ कि दुसतर माप,
वह मारंै आगै बढ़ै, यह भागै द्रुत आप।
असंगति:
लरै नैंन, पलकें गिरैं, चित तरपैं दिन-रात,
उठैं सूल उर, प्रीति-पुर अजब अनोखी बात।
उत्प्रेक्षा:
कढि़ सरतें द्रुत दै गई, दृगनि देह-दुति चैंध,
बरसत बादर-बीच जनु, गई बीजुरी कांैध।
दोहावली में अलंकार:
दुलारे-दोहावली में वैसे तो अनेक अलंकारों का वर्णन है, और खूब है, परन्तु कविवर दुलारे लाल का पूर्ण कौशल रूपक अलंकार के उत्कृष्ट वर्णनों में परिलक्षित होता है। स्मरण रहे, उपमा की अपेक्षा रूपक अलंकार का निर्वाह कठिन होता है। इसमें भी परंपरित सावयव सम अभेद रूपक लिखना तो पूर्ण कवित्व-सामथ्र्य की अपेक्षा रखता है। प्रस्तुत दोहावली में कविवर न सावयव सम अभेद रूपक अलंकार की पूर्ण छटा अनेक दोहों में बड़े ही कौशल से छहराई है। किसी विष्रय को उठाकर उसके उचित भाव-साधन्र्य का दूसरा सावयव दृश्य उपस्थित कर उनमें आदि से अन्त तक सम अभेद रूपक का निर्वाह कर ले जाना विलक्षण प्रतिभा, प्रबल कल्पना और व्यापक ज्ञान के साथ-साथ सरस अनुभूति का परिचायक है। अब तक रूपकों की अनुपम छटा के लिए बिहारी-सतसई की ही सर्वापेक्षा अधिक प्रसिद्ध और सम्मान है। पर दुलारे-दोहावली के उत्कृष्ट रूपकों की परंपरित सावयव सम अभेद रहने की काव्य चातुरी देखकर अब विवश होकर यही कहना पड़ता है कि उत्कृष्ट रूपकों की दृष्टि से दुलारे-दोहावली के दोहे बिहारी सतसई के दोहो का सफलता से मुकाबला करते है। वैसे दो-चार रूपक यहां देखिये--
हृदय कूप, मन रहंट, स्मृति-माल माल, रस राग,
बिरह बृषभ, बरहा नयन-क्यौं न सिंचै स्मर बाग?
जोबन-बन बिहरत नयन-सर, सों मन-मृग मारि-
बांधति व्याधिनि केसिनि, केसन-पास संवारि।
नाह-नेह-नभ तें अली, टारी रोस कौ राहु-
प्रिय-मुख-चंद दिखाहु प्रिय, तिय-कुमुदिन विकसाहु।
चितन्वकमक पै चोट दै, चितवन-लोह चलाइ-
हित-आगो हिय-सत् मैं, ललना गई लगाई।
रही अछूतोद्वार-नद छुआछूत-तिय डुबि,
सास्रन कौ तिनकौ गहति क्रांति-भंवर सौं ऊबि।
यौरप-दुःशासन निठुर, खींचत लखि निधि चीर-
जन्मभूमि-कृष्ण करी ‘‘मोहन’’ अभय-शरीर।
दंपति-हित-डोरी खरी, परी चपल चित-डार,
चार चखन-पटरी अरी, झांेकनि झूलत मार।
चख-चर चंचल चार मिलि, नवल-बयस-थल आय-
हित झंपान ते चित-पथिक स्मर-गिरि देत चढ़ाय।
भाषा
दुलारे दोहावली की भाषा प्रौढ़ साहित्यिक ब्रजभाषा है। स्मरण रहे, प्राचीन काल ही से साहित्यिक ब्रजभाषा में अत्यंत प्रचलित फारसी, बुंदेलखंडी, अवधी और संस्कृत के तत्सम शब्दों का थोड़ा-बहुत प्रयोग होता रहा। ब्रजभाषा के किसी भी कवि की भाषा का बारीकी से अध्ययन करने पर उपर्युक्त बात का पता सहज ही चल सकता है। कुछ प्राचीन कवियों ने तो अनुप्रास और यमक के लिए भाषा को इतना तोड़ा-मरोड़ा है कि शब्दों के रूप ही विकृत हो गये हैं। यद्यपि दोहावलीकार ब्रजभाषा के निर्माता सूर, बिहारी, आदि कवीरवरों द्वारा अपनाए गए बुन्देलखंडी, अवधी और फारसी के अत्यन्त प्रचलित शब्दों का बहिष्कार करना अनुचित मानते है, पर उन्होनें प्रायः ब्रजभाषा के विशुद्ध रूप को ही अपनाया है। दूसरी प्रान्तीय हिन्दी-बोलियों अथवा फारसी के शब्दों का आपने इने-गिने दस-पांच स्थलों पर ही, जहां उचित समझा है, प्रयोग किया है। आपने अत्यन्त प्रचलित अंग्रेजी शब्दों का भी दो-चार दोहों में प्रयोग किया है, परन्तु ऐसे स्थलों में प्रस्तुत अंग्रेजी शब्द वे है, जिनके पर्यायवाची शब्द हिन्दी में नहीं मिलते, और जिन्हें आज जनता भली भांति समझती है। जैसे-
शासन कृषि तै दूर, दीन प्रजा-पंछी रहै,
सासक-कृषकन क्रूर, आर्डिनेंस-चंचै रचै।
इसमें आर्डिनेंस का प्रयोग ऐसा ही हुआ है। एक और भी उदाहरण दर्शनीय है, जिसमें प्रचलित अंग्रेजी शब्दों के प्रयोग द्वारा कविवर श्री दुलारे लाल ने ‘‘भाषा-समक‘‘ अलंकार रखा है-
सत इसटिक जग-फील्ड लै जीवन हाकी खेलि,
वा अनंत के गोल मैं, आतम बालहिं मेलि।
दोहावली की भाषा में बोलचाल की स्वाभाविक और जबांदानी का चमत्कार सर्वत्र दर्शनीय है। पद-मैत्री का भी सौष्ठव है। अनुप्रास, श्लेष और यमक का बड़ा ही औचित्यपूर्ण, रसानुकूल, सुन्दर प्रयोग किया गया है। माधुर्य, प्रसाद और ओज की अनेक दोहों में निराली छटा आ गई है। यहाँ स्थानाभाव के कारण भाषा-सौन्दर्य के विषय में अधिक न लिखकर मैं दोहावली के शब्दालंकारो की छटा की कुछ झलक दिखलाता हूं-
अनुप्रास
संतत सहज सुभाव सौं सुजन सबै सनमानि-
सुधा-सरस सींचत स्रवन सनी-स्नेह सुबानि।
कियौ कोप चित-चोप सौं-आई आनन ओप,
भई लोप पै मिलत चख, लियौ हियौ हित छौप।
स्याम-सुरंग-रंग-करन-कर रग-रग रंगत उदोत,
जग-मग जगमग, डग डगमग नहिं होत।
गुंजनिकेतन गंुज-जुत हुतौ कितौ मनरंजन,
तुजं-पुंज सो कुंज लखि क्यों न होय मन रंज।
नंद-नंद सुख-कंद कौ, मंद हंसत मुख-चंद,
नसत दंद-छलछंद-तम जगत जगत-आनन्द।।
यमक
बस न हमारौ, करहु बस, बस न लेहु प्रिय लाज,
बसन देहु, ब्रज मैं हमैं, बसन देहु ब्रजराज।
बार बित्यौ लखि, बार झुकि बार बिरह के बार,
बार-बार सोचति-कितै कीन्हीं बार लबार।
खरी सांकरी हित-गली, बिरह-कांकरी छाइ-
अगम करी तापै अली, लाज-करी बिठराइ।
हृदय-सून तै असत-तम हरौ, करौ जौ स्न-
स्न-भरन के हित झपटि झट अवैगो स्न।।
श्लेष
विषय-बात मन नाव कौं भव-नद देति बहाइ,
पकरू नाव-पतवार दृढ़़,चट लगिहै तट आइ।
मन-कानन मैं धंसि कुटिल, काननचारी नैन-
मारत मति-मृगि मृदुल, पै पोसत मृगपति-मैन।
(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं)