Monday, March 14, 2011

इंकलाब ज़िदाबाद

दुश्मन हमला कर चुका है और, उसकी आक्रमकता युद्ध जैसी बर्बर है। अब हमें दो-टूक शब्दों में बात कहने की हिम्मत जुटानी ही होगी। यह हमला महज राजनीतिक नहीं है। दरअसल यह हमला आतंकवाद, माओवाद, नक्सलवाद, भ्रष्टाचार, घपलों-घोटालों, कालेधन और महंगाई के पीछे छुपे चेहरे ‘ग्लोबलाइजेशन’ के जरिये किया जा रहा है। इस हमले के पीछे जहां दुनियाभर के रूढ़िवादी ताकतकवर व्यापारी हैं, तो उनकी महत्वाकांक्षों के साझेदार हमारे अपने भाई बंद भी है। पिछले पांच महीनों में सामने आए घपलों-घोटालों से पैदा हुआ घमासान और भारत की धरती पर सरझुकाए आने वाले कई देशों के राष्ट्राध्यक्षों की मीठी वाणी व इससे पहले भी हुए तमाम देशी-विदेशी हमले इस जंग के पुख्ता सुबूत हैं।
    इस जंग को हवा देने और उग्र करने का काम केन्द्र और राज्य स्तर के नेता अपनी भ्रामक बयानबाजियों के जरिए करने में लगे हैं। इन नेताओ ंकी पूरी कोशिश सरकार के तमाम आर्थिक कार्यक्रमों को मटियामेंट करने और तास्सुबी अखाड़े खोदने भर की है। भारत किसी देश से कोई आर्थिक जंग नहीं लड़ना चाहता है, बल्कि दुनियाभर के अमीर  राष्ट्र और उनके बनिए-बक्काल अपनी पूंजी के जरिए भारतवंशियों को आर्थिक, मानसिक गुलाम बनाने की साजिश कर रहे हैं। और उनके साथ कंधे से कंधा मिलाए खड़े हैं हमारे अपने बनिये और उनके राष्ट्रवादी मुखौटा  पहने सियासी समर्थक। यह कोई लफ्फाजी नहीं है। पुख्ता सुबूत हैं अकेले गुजरात में दुनिया के प्रमुख उद्योगपतियों से 450 अरब डाॅलर के पूंजी निवेश के समझौते जनवरी 2011 में हुए हैं।  इसके अलावा पिछले साल पीएचडी चैंबर की 105वीं वार्षिंक आम बैठक के उद्घाटन के मौके पर वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी ने बढ़ते विदेशी पूंजी के प्रवाह को ‘खतरे की घंटी’ न मानने की बात कहते हुए यह भी कहा था कि यदि विदेशी पूंजी का प्रवाह स्तर से ऊपर निकलता है तो चिंता का विषय है। यहां बताते चलें कि साल 2010 के नवंबर महीने तक देश के शेयर बाजारों में विदेशी संस्थागत निवेशकों का पूंजी प्रवाह 38 अरब डाॅलर से ऊपर निकल गया था। तब वित्तमंत्री ने भी इसे खपाने की चिंता जताई थी। हालांकि उस समय वित्त मंत्री ने उच्च आर्थिक वृद्धि के लाभ को समाज के निचले तबके तक पहुंचाने का भ्रामक बयान भी दिया था। आज हालात और भी बदतर हो रहे हैं। अब विदेशी शेयर बाजारों में देशी पूंजी के निवेश का भी रास्ता खोला जा रहा है। इसी तरह हमारे देश के बड़े उद्योगपतियों से लेकर बड़े व्यापारी तक अपना पैसा विदेशी बाजारों में लगा रहे हैं। हमारे पड़ोसी मुल्क प्याज, लहसुन जैसी रोजमर्रा की जरूरतों वाली वस्तुओं के साथ मोबाइल, टीवी व जूते तक से भारतीय बाजारों को पाट दे रहे हैं।  और तो और हमारा ही सामान सस्ते भाव में खरीदकर दोबार हमें ही महंगे भाव में बेचा जा रहा है। इन सामानों के साथ आने वाले लोगों की नीयत कतई साफ नहीं है। इसकी गवाही नेपाल सीमा से लगे इलाकों में व देश के अन्य सीमावर्ती इलाकों में लगातार पकड़े जा रहे घुसपैठियों की बढ़ती संख्या है। और हमारी सरकार के ताजा बजट में विदेशी पूंजी निवेश को दी गई खुली दावत भी हमें इतिहास के पन्नों में दफ्न ईस्ट इंडिया कम्पनी के कारनामों की याद दिला रहे हैं।
    भारतीय लोकतंत्र का राजमार्ग घपलों-घोटालों की संकरी गलियों में फंस गया है। इन्हीं गलियों में बहनेवाली तास्सुब की मोरियों से द्दर्म, जाति और भयादोहन की दुर्गंद्द उठ रही है। विपक्ष में बैठी भाजपा सत्ता दल की मुखिया पर आरोपों की बौछार करने का कोई मौका नहीं चूकती। यहां तक सीधे सोनिया गांधी को उसके सहयोगी संगठन धमकी देते हैं। विहिप के मुखिया से लेकर संघ के पूर्व प्रमुख ‘नतीजे भुगतने’ जैसे जुम्ले उछालकर टकराव की जमीन तैयार करते हैं?राम-मंदिर के नाम पर सिंदूर-चंदन बांटकर हिंन्दुओं की आस्था को चोट पहुंचाने के साथ सियासी ब्लैकमेल का खतरनाक खेल देश को कहां ले जाएगा?वहीं सत्तादल में ही कई अंद्देरी गुफाएं खुल गईं हैं। इनमें से निकलने वाला चेहरा देशद्रोह से मिलता है। उससे भी तकलीफदेह हैं, प्रधानमंत्री के वाक्य, ‘वे मजबूर हैं।’ या ‘सरकार को ब्लैकमेल करना चाहती है, भाजपा।’ यह सच है कि अपने दूसरे कार्यकाल के दौरान पूरे समय प्रधानमंत्री असाद्दारण संयम से राजनीतिक उतार-चढ़ावों का सामना कर रहे हैं। उनके गम ने ही यह भी कहलवाया कि उनसे कुछ गलतियां हुई हैं। लेकिन वह उतने भी दोषी नहीं है जितना हल्ला मचाया जा रहा है। बावजूद इसके भ्रष्टाचार से जिस सख्ती से निपटने के तेवर मनमोहन सिंह सरकार दिखा रही है, वह देर से ही सही लेकिन उसे उचित कदम कहा जाएगा।
    यह समय आरोपों, प्रत्यारोपों और वोट की राजनीति की संस्कृति से अलग देश की आजादी को बचाने का है। गांधी-नेहरू को गरियाने के दिमागी फितूर को भूलकर पं0 जवाहर लाल नेहरू के प्रण गरीबी और असमानता मिटाने के लिए एकजुट होकर पूरे विपक्ष को जिम्मेदार विपक्ष की भूमिका निभानी होगी। आज देश के सभी बड़े शहरों में माफिया गरोहों की अपनी अलग सरकारें हैं। वे अपने दबदबे से समाज, राजनीति को अपनी मुट्ठियों में रखते हैं। सत्ता इन्हीं के आसपास है। सरकारी पैसों की लूट भी यही कर रहे हैं। इनकी देखा-देखी हर स्तर पर मामूली सक्षमता हासिल नागरिक भी अपने ही भाई बंदों को लूटने में लगा है।
    पं0 जवाहर लाल नेहरू ने बहुत पहले कहा था, ‘देश की आजादी खतरे में है, पूरी ताकत से इसे बचाना है।’ उनकी सोंच के मानचित्र पर उभरे हुए खतरे आज और भी बढ़ गये हैं। उनसे निपटने के लिए महात्मा गांधी की रणनीति अहिंसा और डाॅ0 अम्बेडकर की अगुवाई में लिखे गये भारतीय संविधान पर ईमानदारी से अमल करने की आवश्यकता है। हमें देश की आजादी बचाने के लिए हर ‘रावण ’ को देश से बाहर खदेड़ना होगा और सामाजिक विषमताओं को सत्य की लाठी से हांकना होगा। आइए, आजादी बचाने का संकल्प लें। हमारा प्रण ही एक स्वस्थ्य राष्ट्र का निर्माण करेगा।

अभी तो मुट्ठी भर जमीन नापी है, आसमान बाकी है।

साल की शुरूआत के ढाई महीने पिछले बरस की वसीयत थामें अपनी पूरी ताकत से गरियाऊ संस्कृति को पालने-पोसने  की मशक्कत में बेहद मसरूफ रहे। और आदमी की पीड़ा से कराहती चीखें जस की तस गूंजती रही। समस्याओं का हांका लगातार जारी है, लेकिन समाधान के भगीरथ प्रयास कहीं नहीं होते दिख रहे। बस यहीं ‘चीथड़े’ कहे जाने वाले अखबारों की बेचैनी बढ़ जाती है और इसी तकलीफ ने 32 बरस पहले ‘प्रियंका’ को पाठकों के बीच खड़ा किया। यह वह समय था, जब इमरजेंसी की कोख से जन्मी जनता पार्टी की नाकामियों का जश्न इंदिरा कांग्रेस पूरे दंभ से मना रही थी। ‘प्रियंका’ के पहले अंक की महज दो सौ प्रतियां छपीं थी। छठे अंक के आते-आते शराब माफिया से सामना हुआ। तब पहली बार तमाशाचारी चमगादड़ों की चिचियाहट के खौफ ने थोड़ी सिहरन पैदा की , लेकिन पाठकों से मिलने वाले दुलार ने ताकत दी। इसी दौरान पुलिस-अपराधी गंठजोड़ का सिनेमाई चेहरा भी देखने को मिला। एक सुबह आठ-दस मुस्टंडे मेरे गली वाले घर के दरवाजे पर आ धमके। उनमें से कइयों के मुंह पर पाव-पाव भर की मूंछे भी थीं। वे बेधकड़क मेरे बैठक कम स्टडी में घुस आये। मेरी दुबली-पतली चालीस किलों की काया को देखकर घुड़कते हुए बोले, ‘बुला राम प्रकाश को ... मा.....।’ मैं सन्न....... ऐसे अपमान से पहली बार दो-चार हो रहा था। तभी उनमें से एक पहलवान ने फिर डपटा। थोड़ा सहमते हुए मैने अपना नाम बताया। उसी मूंछधारी ने बड़े ही ठंडे लहजे में गरम -गरम वाक्य बोलने शुरू किये, ‘बीबी तो है न। साड़ी रंगीन ही पहनती होगी। सफेद रंग की एक खरीद ला। कल से उसको वही पहननी होगी। सा... ला... चीथड़े सा अखबार उस पर ये ठसक.........।’
    यहां बताते चलें जिस गली में मेरा घर है, वहीं पहले गरीबे दहीवाले और मंगाला भौजी दूधवाली का कारखाने की शक्ल में बड़ा सा घर भी था। जहां देहात से आने वाले तमाम दूधवालों का जमावड़ा रातो-दिन रहता था। उनमें अधिकांश मेरा बेहद सम्मान करते थे। उन आने वाले मुस्टंडों ने उन्हीं लोगों से मेरे घर की पूछताछ की थी, जिससे वे कुछ सशंकित हो गये थे। उनकी एक छोटी सी भीड़ दरवाजे पर आ गई। जिसकी वजह से कोई धमाकाधुन न गूंज पाई। बाद में पता लगा उन्हें एक सी.ओ. साहब ने भेजा था। वे मेरी लिखी ‘मंशा राजपूत कांड’ की खबर के चलते बर्खास्तगी के कगार पर थे। उन पहलवानांें में कई पुलिसवाले स्थानीय थाने से थे। उन सबको तत्कालीन पुलिस अधीक्षक के गुस्से का शिकार होना पड़ा। आहत स्वाभिमान और मुखर हो उठा।
    ‘प्रियंका’ के साथ मैं जिस अखबार के लिए काम करता था उसने मुझे पूर्वांचल की आपराधिक गतिविधियों की खोजपरक रिपोर्टिंग का जिम्मा सौंपा। यह पड़ाव ‘प्रियंका’ के लिए सबसे अहम् साबित हुआ। चार पन्नों के इस ‘चीथड़े’ ने सूबे के मुख्यमंत्री के गड़बड़झाले से लेकर लाॅटरी, अफीम तस्करी, और व्यवस्था के काले खेमों की असलियत का खुलासा करना शुरू किया। नतीजे में मुकदमों और जेल की सलाखों के साथ आर्थिक अभावों का सामना करना पड़ा। इस पूरे सफर में जब भी कोई गरियाता तो ‘प्रियंका’ को ‘चीथड़ा’ कहना नहीं भूलता। हालांकि ‘चीथड़े’ से खौफजदा भी रहता। दरअसल खौफ और गालियांे के बीच दंभ का रावण उनको लक्का कबूतर की शक्ल में होने का भ्रम दे देता था, जिसका काम सिर्फ और सिर्फ मशक्कली मादा (सत्ता) के आसपास मंडराने का रह जाता। हालांकि हासिल कुछ भी न होता। असफलता और निराशा अपनी तमाम ताकत गालियां देने में महारत हासिल करने में बर्बाद कर देती है।
    ‘प्रियंका’ को अखबार मानने से परहेज करने वाले मुट्ठी भर काबिल कुनबे ने चांदी-सोने के टुकड़ांे से उसके संघर्षों के पसीने को बार-बार तौलने के नाकाम प्रयास किये। और तो और कई बार दया दर्शाने वालो ंसे भी सामना होता रहा और आज भी होता है। इससे भी आगे मेरे लंगोटिया यारों में भी ‘प्रियंका’ के छोटे  होने की फांस खरकती है। यहां मैं साफ कर दूं सच का सामथ्र्य भले ही छोटा लगे और स्वाभिमान की संपदा नंगी आंखों से न दिखे, लेकिन सच सिर्फ सच होता है। उसकी जुबान नहीं काटी जा सकती। स्वाभिमान, संस्कार के बेटे का नाम है, जिस पर समूचे समाज को अभिमान है। और साफगोई से कहूं तो, जो बात धारदार है वो रु-ब-रु कहो/  वरना बिखेर देंगे ये जालिम दुभाषिये।
    श्रीकृष्णा ने अर्जुन से कहा था तुम निमित्त मात्र हो, कर्ता मैं हूँ। इसलिए तुम योद्धा हो, केवल युद्ध करो। मेरे गुरू ने मुझे सादगी, साफदिली और सचबयानी के सबक सिखाए थे। उसी साधना के बलबूते ‘प्रियंका’ लगातार 32 सालों से संघर्ष का पर्व हर बरस वार्षिकांक छाप कर अपने दो-चार, दस-बीस पाठकों के साथ मनाती हैं। हो सकता है पाठकों की संख्या का आंकड़ा बड़ा हो लेकिन ‘प्रियंका’ उनमें से दुखियारों की आवाज अपनी पैदाइश के दिन से रही है। इसे यूं भी कह सकता हूं कि इतिहास की भूमि पर खड़े होकर आज के गूंगे पद-दलितों की पीड़ा  के लिए हलक फाड़कर चीखना होगा तभी तो ‘चीथड़ों’ के जरिए भविष्य में इंकलाब का जलजला आएगा। यहां और साफ-साफ बता दूं कि इन्हीं ‘चीथड़ों’ ने आजादी के आन्दोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। यह किसी पगलाए हुए अखबारनवीस की कलम से निकला प्रलाप नहीं है, वरन आदमी की भाषा का व्याकरण है। जहां संज्ञा के ‘व्यंजन’ और सर्वनाम के ‘विज्ञापन’ हो जाने की छटपटाहट व्याकुल किए है।
    और अन्त में इतना ही, ‘‘अभी तो मुट्ठी भर जमीन नापी है, आसमान बाकी है।’’ इसी प्रबल आशा, जिज्ञासा, के साथ ‘प्रियंका’ का वार्षिकांक, 2011’ आपको कैसा लगा जानने की इच्छा रहेगी। हमेशा की तरह आपकी आलोचना, आपका दुलार इस ‘चीथड़े’ को और धारदार बनाएगा।    प्रणाम!

बलात्कार! बलात्कार!! बलात्कार!!! कैसे बचे औरतों की इज्जत?

लखनऊ। सच तो यह है कि हमारा समाज भ्रष्ट, ध्रष्ट और चरित्रहीन होता जा रहा है। हर सुबह अखबार में बलात्कार की घटनाओं की खबरें होती हैं। हद तो यह है कि जहां प्रदेश की तेज तर्रार महिला मुख्यमंत्री विधानसभा सदन के भीतर बड़े गर्व से स्वीकार करती हैं कि जनवरी 2009 से मई 2010 तक डेढ़ साल में 2412 महिलाएं बलात्कार की शिकार हुईं यानी औसतन एक दिन मे ंपांच महिलाओं की इज्जत लूटी गई। इससे भी अधिक कानून के साथ मजाक क्या हो सकात है कि जहां स्वयं मुख्यमंत्री रहती हैं, उसी इलाके में विदेश से आई युवती से बड़े बाप के बेटे फिल्मी अंदाज में खुली सड़क पर छेड़छाड़ करते हैं। डरी-सहमी युवती एक टी.वी. चैनल के दफ्तर में शरण लेती है। चैनल के लोग पुलिस को सूचना देते हैं फिर भी पुलिस आदतन एक घंटे बाद पहुंचती है और अपमानित युवती ब्रीथिया की शिकायत पर पुलिस की नजरों में कोई अपराध नहीं बनता। सवाल यह है कि क्या सड़क पर बलात्कार होने के बाद ही अपराध बनेगा?
    यह सवाल कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता पूछते हैं। उनका कहना है कि अखबार पढ़ने से तो यह लगता है कि सूबे में बलात्कारों का मौसम आ गया है। कहीं युवती को बलात्कार के बाद जिन्दा जला दिया जा रहा है, कहीं हाथ-पैर काट लिए जाते हैं। तो कहीं पीड़िता को ही जेल भेज दिया जाता है। हाथ पैर काट लिए जाते हैं। कहीं युवती पर सरेराह तेजाब फंेका जा रहा है। पीड़िताओं को अस्पतालों में इलाज के बजाए डाक्टर धक्के मार कर बाहर भगा दे रहे हैं। इसके बाद भी सरकार और उसके जिम्मेदार मुखिया, हाकिम कहते हैं, कानून-व्यवस्था दुरूस्त है। कानून का राज कायम है।
    इससे भी तकलीफदेह एक मेल ‘प्रियंका’ के पाठक का आया है, जिसका पूछना है कि क्या जब प्रदेश की तमाम युवतियां ‘गैंगरेप’ का शिकार होकर अपनी जीवनलीला समाप्त कर लेंगी तब यह समाज, सरकार और मीडिया चेतेगी? क्या सारी जिम्मेदारी सरकार की है? मीडिया बलात्कार को चटखारे लगाकर टी.वी. के पर्दे पर दिखाकर और अखबार उसे मसालेदार खबर बनाकर छापकर छुट्टी पा सकता है? क्या उसे समाज में फैल रहे इस क्रूर अपराद्द के प्रति संवेदनशील नहीं होना चाहिए और सुधारात्मक जन जागरण अभियान चलाने की पहल नहीं करनी चाहिए?
        इन सवालों के जवाब में शायद बहस हो सकती है या टका सा पुलिसिया जवाब दिया जा सकता है। सरकार में बैठा दल अपने लोगों के शामिल होने पर पूरी बेशर्मी से इसे ‘सियासी रंग’ करार दे सकता है। विपक्ष सिर्फ हो हल्ला मचाकर अपने हित साधने की जमीन तैयार कर सकता है। फिर कौन इन बिलखती व अपमानित युवतियों के आंसू पोंछेगा?
    आंकड़े कहते हैं, अकेले राजधानी लखनऊ में बीते चार महीनों में 25 युवतियां बलात्कार की शिकार हुईं। इनमें मासूम बच्ची से लेकर नाबालिग लड़कियां तक शामिल हैं। लखनऊ पुलिस के थानों में दर्ज आंकड़े बताते हैं कि मौजूदा सरकार के तीन सालों के दौरान बलात्कार के मामले लगभग 30 फीसदी बढ़े हैं। इनमें भी तमाम मामलों में सत्तादल के नेता शामिल हैं और इनको बचाने में सत्तादल की मुखिया और हाकिम पूरी ढ़िठाई से आगे खड़े हो जाते हैं। यही पुलिस बाकायदा पीड़ितों को धमकाने, समझौता कराने की भूमिका निभा रही है।
    कमोबेश इसी तरह की भूमिका कांग्रेस के राहुल गांद्दी से लेकर सपा, भाजपा व अन्य दलों के नेताओं की भी है। कोई भी गंभीरता से किसी प्रकार के ठोस कदम उठाने के पक्ष मंे नहीं दिखता। विधानसभा के सदन में भी इसे उठाकर विपक्ष महज अपना हित साधता दिखाई दे रहा है।
    समाजसेवकों, नेताओं, अफसरों के भरोसे को छोड़ कर ‘आदमी’ को आगे बढ़कर इस समस्या के लिए जूझना होगा। आइए हम ही पहल करें ‘प्रियंका को अपने सुझाव ई-मेलः मकपजवतण् चतपलंदां/हउंपसण्बवउ पर मेल करें।

कहां हैं महात्मा गांधी?

लखनऊ। सूबे की बसपा सरकार के मंत्रियों व सरकारी दफ्तरों से महात्मा गांधी के फोटो को उतरे हुए धीरे-धीरे चार साल हो रहे हैं। गौरतलब है कि आजादी के बाद से देश के सभी सरकारी कार्यालयों में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और देश के राष्ट्रपति के चित्रों को टांगने की परम्परा रही हैं। सभी दलों की सरकारों ने इसका पालन भी किया। मई 2007 में जब पूर्ण बहुमत वाली बसपा सरकार उप्र में दाखिल हुई तो सबसे पहले विधान भवन में मौजूद मुख्यमंत्री व मंत्रियों के कार्यालयों की साफ सफाई के बहाने महात्मा गांधी के चित्रों को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। आज लखनऊ में सभी कार्यालयों में डाॅ0 अम्बेडकर, कांशीराम और मायावती के चित्र लगे दिखाई देते हैं।
    महात्मा गांधी की जगह इन चित्रों को लगाने का आदेश किसने दिया, पर हर तरफ मौन हैं। एक सेवानिवृत हाकिम के मुताबिक जुबानी आदेश के तहत महात्मा गांधी का चित्र लगाना प्रतिबंद्दित हैं। यहीं उप्र सूचना विभाग के कारिन्दों का जवाब भी गौर करने लायक हैं। यहां बताते चलें कि राजनेताओं के चित्र सूचना विभाग ही उपलब्ध कराता है। प्रदेश सरकार के मंत्रियों की मांग पर उन्हें सूचना विभाग ने डाॅ0 अम्बेडकर, कांशीराम व मायावती के चित्रों को उपलब्ध कराया, किसी ने महात्मा गांधी के चित्र की मांग ही नही की तो कैसे गांधी जी के चित्र को दिया जाता। इस मामले पर बसपा के नेताओं का कहना है कि गांधी जी कांग्रेस के नेता हैं। कांग्रेस सरकारों में डाॅ0 अम्बेडकर के चित्र को नहीं लगाया गया तो बसपा सरकार गांधी का चित्र क्यों लगाए? समय के साथ परम्पराएं बदली जा सकती है और यह गलत भी नहीं है। हम गांधी जी का अपमान तो नहीं कर रहे हैं।
    यहां याद दिलाते चलें इसी विधान सभा में मायावती ने गांधी जी के लिए अपशब्दों का इस्तेमाल काफी समय पहले किया था, जिस पर काफी हो-हल्ला भी मचा था। हालांकि गांधी जी के चित्र को इससे पहले भाजपा के मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने भी हटाने की पहल की थी, लेकिन सार्वजनिक निंदा के बाद उन्होंने अपने कदम वापस लेकर गांधी जी के चित्रों को सरकारी कार्यालयों में लगा रहने दिया। कांग्रेस, भाजपा व सपा के लिए यह कोई मुद्दा नहीं है। सभी के अपने-अपने स्वार्थ हैं, सबको दलित वोटों की आवश्यकता है। कुछ को सरकारी सुविधाओं की चाहत है, तो कइयों के लिए गांधी जी महत्वहीन हैं। उससे भी बड़ी बात है गांधी जी वोट नहीं है। गांधी जी दलित नहीं है। इसीलिए कोई भी इस मसले पर कुछ भी नहीं कहना चाहता। बहरहाल, गांधी जी लखनऊ के सरकारी कार्यालयों से बाहर ही रहेंगे।

‘बच्चा’ से बच्चे हैं बर्बाद!

लखनऊ। शराब, कबाब और शबाब राजधानी की सड़कों पर इस कदर बिखरा है कि शरीफ शहरी भी इसे देखकर अब नाक भौं नहीं सिकोड़ता। शहर के हर मोड़ पर शराब की दुकान, कबाब के ठेले और अधनंगे हुस्न की मौजूदगी है। देशी-विदेशी शराब की दुकानों पर लगातार बढ़ती भीड़ और मांसाहार के ठेलों की बढ़ी हुई संख्या के साथ युवतियों में भी पीने-पिलाने के नए चलन ने शहर में बदलाव की राह पकड़ ली है। इसमें जो सबसे खतरनाक बात है, वह है किशोरों के नशे की लत का शिकार होने की बढ़ती शिकायतों की।
    अंग्रेजी शराब की दुकानों में काफी समय से ‘बच्चा’ के नाम से एक-दो पैग का पैक बेचा जा रहा है। ये पैक 50-70 रुपए के बीच होता है, जिसे सम्पनन घरों के किशोर-किशोरी आसानी से खरीद लेते हैं। इसी तरह बीयर के कंटेनरों की भी मांग इन किशोरों में हैं। अंग्रेजी शराब की दुकानों पर स्कूटी सवार युवतियों का दिखना आम हैं, वहीं स्कूल बैग टांगे किशोर-किशोरियों की संख्या में भी लगातार इजाफा हो रहा है। ये बच्चे अधिकतर ‘बच्चा’ ही खरीदते हैं जिसे आसानी से जेब में या बैग में रखा जा सके और एक बार में ही पीकर फेंका जा सके। मजेदार बात ये है कि इस ‘बच्चे’ से शराब की दुर्गंद्द भी नहीं आती। अधिकतर में किसी न किसी फल की खुशबू व स्वाद होता है, जिसे जूस की तरह बच्चे गटागट पी जाते हैं।
    ‘बच्चा’ के नाम से एक-दो पैग वाला पैक बेचने के पीछे इन दुकानदारों का तर्क है कि अंग्रेजी शराब महंगी होती जा रही है। जिससे तमाम लोग उसे खरीद नहीं पाते, सो बड़े ब्रांड में ‘बच्चा’ आने से वे लोग भी आसानी से उसे खरीद लेते हैं। आप इसे यूं समझ लें की पांच रुपए का मैगी पाउच खरीदना आसान हैं कि नहीं। उसी तरह पचास का ‘बच्चा’ भी आदमी के जेब की पहुंच में है। इससे बच्चों के बिगड़ने की बात पर दुकानदारों का कहना है, अब इसे तो नहीं रोका जा सकता। यह तो मां-बाप को ही करना होगा। सरकार या दुकानदार इसमें क्या कर सकती है?
बेशक हमें ही सोंचना होगा। अपने बच्चों पर निगरानी रखनी होगी और उन्हें इसके नुकसान बताकर इस नशेड़ी ‘बच्चे’ से दूर रखने के प्रयास करने होंगे वरना नई पीढ़ी नशे के साथ अपराध की अंधेरी गली में गुम हो सकती है।