Thursday, December 30, 2010

मगर ‘प्रियंका’ को संघर्ष के दौर ने एक सही तर्क दिया

आदमी और अपराध के बीच की सरल रेखा को काटकर स्वास्तिक का चिन्ह बना लेने का कमाल सिर्फ कलम को हासिल है और कलम सियासी रावण की अदालत में मुल्जिम के कटघरे में खड़े बेकसूर आदमी का हलफनामा है। इसी कलम ने इकतीस बरस पहले ‘प्रियंका’ को जन्म दिया, पांच साल माता सरस्वती के बेटों के चरण पखारते गुजर गए। छठे साल राजनीति के परकोटे पर जहांगीरी घंटे की तरह जा पहुंची ‘प्रियंका’। नतीजे में इंसाफ की जगह मुकदमों और जेल का प्रशिक्षण हासिल हुआ। कठिन संघर्ष के दौर ने एक सही तर्क दिया।
    लेकिन खाली तर्क का सिक्का किसी महाजन को उत्तेजित नहीं कर पाता, तिस पर चार पन्नों वाले चीथड़े की क्या बिसात जो गरीब की जोरू की तरह अपना तन ढकने में या फिर सुविधाओं के ठाठ की लालच में महज एक साड़ी के बदले किसी महाजन के साथ रात भर सोने के लिए राजी हो जाती है। बस यहीं उसके पेट पर अपने बेडौल पांव रखकर महाजनों का पूरा टोला उसे छिनाल-छिनाल पुकारते हुए सभ्यता की नाक पर रूमाल लपेटे दुत्कारता रहता है। फिर द्रौपदी नहीं जन्मेगी? और उसके भीतर आग नहीं जलेगी? उसके अंगारे भभक कर इधर-उधर नहीं छिटकेंगे? निश्चित रूप से आग भी जलेगी, अंगारे भी धधकेंगे और फिर महाभारत भी होगा।
    और वहीं हुआ भी। द्रौपदी महज किसी औरत का नाम भर नहीं है। द्रौपदी एक क्रांति का नाम है। नाइंसाफी के मुखालिफ एक आंदोलन है, एक जोरदार आवाज है। इसी प्रेरणा के पथ पर जनता से जंगल तक ‘जनतंत्र’ के जिम्मेदारों को ललकारने के लिए ‘प्रियंका ने सच बयानी का हलफनामा दाखिल किया।
    ‘प्रियंका’ के पाठकों और विज्ञापनदाताओं की संख्या में एक बड़ा इजाफा हुआ। बड़े अखबारों की कतार में दिखनेवाली पाक्षिक ‘प्रियंका’ जहां मुकदमों से लदी-फंदी रही, वहीं एक भरा-पूरा परिवार पाने में भी सफल रही। समूचे उत्तर प्रदेश में एक अलग पहचान बनी। गांव-गंवई क्षेत्रों में भी दखल बढ़ा। गांव के मुखिया से लेकर पांच विधानसभा क्षेत्र से चुने जाने वाले सांसद तक सुर्खियां बने। गूंगों की जुबान बनने और निष्ठा की तुक बिठाने में सूबे के मुख्यमंत्री के गुस्से की बारूद ने हाथ-पांव झुलसा दिए। इसी समय कई शालीन हाथ, जो परिवर्तन के हिमायती थे दोस्ती के लिए बढ़े। उनके पास पूंजीवादी दिमाग था। वे ‘प्रियंका’ का सहयोग करते हुए कुछ इस तरह अपने मकसद में कामयाबी  चाहते थे कि शालीनता भी बनी रहे और विरोध में उठे हुए हाथ की मुट्ठी भी तनी रहे। और ऐसा ही हुआ भी। यह सब इतने आहिस्ता-आहिस्ता, लेकिन सड़क पर दौड़ते ‘ट्रैफिक’ की तरह हुआ कि राज बदल गया, समाज बदल गया और सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोग बदल गए। यहां तक एक समूची नई पीढ़ी पल-पुसकर तैयार हो गई। मगर ‘प्रियंका’ के हलक से चीखें निकलना बंद न हुई।
    रावण के पुतले को जलते हुए देखकर ताली बजाने वाले हिजड़ों की जमात जब सत्ता पर काबिज हो गई और रामनामी बेंचकर ‘सीता’ की ही दलाली करने का हौसला कर बैठी तब जकार अहसास हुआ कि आदमी अपनी ही नैतिकता से कितना मजबूर होता है। शायद इन्हीं अनुभवों के चलते धूमिल ने कहीं लिखा हैं -          
                       एक खुला हुआ सच है कि आदमी
दायें हाथ की नैतिका से
इस कदर मजबूर होता है
कि तमाम उम्र गुजर जाती है मगर
गांड़ सिर्फ, बांयां हाथ धोता है।
यह लाइनें किसी अफसोस के लिए नहीं बल्कि सचबयानी की हलफ के लिए हैं। ‘प्रियंका’ भारत के हिन्दी भाषी पाठकों के दुलार से बेहद गदगद है।  भले ही ‘प्रियंका’ किसी श्रीकृष्ण की खोज में कामयाब न हो सकी, लेकिन अर्जुन के गांडीव की तरह अपनी कलम थामें आपका आशीर्वाद पाकर गौरवान्वित होती रही है और होगी। श्री कृष्ण ने अपने बालसखा सुदामा की पोटली से दो मुट्ठी चावल खाकर दो लोकों के सुख, संपदा से उन्हें मालामाल कर दिया था। शायद ‘प्रियंका’ किसी सुदामा के रिश्ते में नहीं आती, नहीं तो क्या वजह रही कि श्रीकृष्ण का पीताम्बर ओढ़े दसियों हिमायती ‘सियासत की द्वारका’ में भटक गए।
    इक्तीस बरसों में इक्तीस हजार बार सुनने को मिला, यह नाम तो कभी सुना नहीं। कब से यह अखबार निकल रहा है। फिर भी कोई शर्म या घबराहट नहीं पैदा हुई। हां अखबार बेचने, विज्ञापन जुटाने और समाचार लिखने में जिस संकल्प की जरूरत थी, उससे इंच भर भी पीछे हटने का इरादा कभी न बन सका, क्योंकि आप पाठकों ने, विज्ञापनदाताओं ने और जिले-जिले बैठे ‘प्रियंका’ के संवाददाताओं ने कभी इस आोर सोंचने का मौका ही नहीं दिया। अखबार को संघर्ष का उपकरण नहीं, आदमी की सचबयानी का हलफनामा बनाए रखने में आप गुरूजनों का आशीर्वाद रहा है। हम तो एकलव्य की तरह आपसे ग्रहण करते रहे और उसे समग्र समाज में फैलाते रहे।
    और अंत में इतना ही कि आप द्वारा दी गई संजीवनी ही कलम के सच का हलफनामा थी और आगे भी रहेगी। प्रणाम!

Sunday, December 26, 2010

कम्प्यूटर जी नाराज हैं... कोई सुनेगा...?

लखनऊ। बिजली बिलों का भुगतान कम्प्यूटर जी के जरिए बाबूजी लोग जमा करते हैं और कम्प्यूटर जी हैं कि लगभग रोज घंटे-दो घंटे के लिए, मन में आया तो पूरे दिन के लिए नाराज हो जाते हैं। उपभोक्ता अपने बिल का भुगतान जमा करने के लिए जहां लम्बी लाइन में लगने को मजबूर होता है वहीं सर्वर फेल होने से कई चक्कर काट कर परेशान होता है। कई बार तो इसी फेर में भुगतान जमा नहीं हो पाता। ऐसे हालात में ठेके पर काम करने वाले गैंग कनेक्शन काटने पहुंच जाते हैं। उपभोक्ता से यह लोग तीन सौ रूपया डिस्कनेक्शन/रिकनेक्शन के नाम पर बतौर रिश्वत वसूलते हैं। इन्दिरा नगर के कृष्ण राना से एसडीओ ने तीन सौ रूपये रिकनेक्शन के नाम पर ले लिए, जबकि उनका कनेक्शन कटा ही नहीं था तो जुड़ने का मतलब ही नहीं। उन्हें इसकी रसीद तक नहीं दी गई। इस रिश्वत में अधिशासी अभियंता सीधे साझीदार होते हैं। क्योंकि डिस्कनेक्शन गैंग को अधि0अभि0 ही अपने क्षेत्र में ठेके पर लगाते हैं। इस तरह के गैंगे (ठेकेदार) विद्युत निगमों से बाकायदा पंजीकृत होते हैं।
    गौरतलब है कि उपभोक्ता की परेशानी को बड़ी ढिठाई से आलाहाकिम नकार देते हैं। सर्वर 36 घंटों तक खराब रहने के बाद भी बेशर्मी से बयान दिये जाते हैं कि सर्वर में गड़बड़ी आई थी जिसे शाम तक ठीक कर लिया गया था और ई-सुविधा केन्द्रों को रात 10.30 बजे तक खुला रखा गया। ऐसे हाकिमों से कौन पूछेगा कि सारा दिन सहायक अभियंता राजस्व से लेकर भुगतान जमा करने वाली खिड़की पर बैठे बाबू तक दिन भर उपभोक्ताओं को यह कह कर लौटाते रहे कि कम्प्यूटर खराब है, उन्हें कैसे पता पड़ेगा की सर्वर ठीक हो गया और 7 से 10 बजे रात के बीच सारे काम छोड़कर बिजली का बिल जमा करने की लाइन में उपभोक्ता आकर खड़ा हो जाए? फिर यह तो रोज की बीमारी है।
    झूठ और बेईमानी की हलफ उठाए लेसा के हाकिम अपने आगे किसी की सुनने को तैयार नहीं, भले ही हाई वोल्टेज से विद्युत उपकरण फुंके, नाजायज वसूली हो, बिजली के बिलों की रकम का गबन हो, या मीटर रीडिंग गड़बड़ हो। हां, सपने दिखाने में सबसे आगे है, लेकिन काम करने में सबसे पीछे। किसी भी मामले को टाल देने में माहिर लेसाकर्मी का एक उदाहरण और देखिए।
    बिजली के बिल में भुगतान जमा करने की 30 तारीख व विच्छेदन तिथि 7 अंकित है। अब उपभोक्ता कई बार चक्कर काटता है, कभी सर्वर फेल, कभी भीड़ बेहद, कभी बाबूजी गायब बमुश्किल 8 को सब ठीक मिला तो बाबूजी से लेकर एसडीओ तक भुगतान लेने से मना कर देता है। उनका जवाब होता अब इसे अगले बिल के साथ जमा करिएगा। अगले बिल में विलम्ब सरचार्ज जुड़ जाता है। इसे राजस्व बढ़ाने का तरीका माना जाए या नियमित भुगतान करने वाले उपभोक्ताओं का खून पीना?

इनको और नहीं, उनको ठौर नहीं

लखनऊ। समाजवादी किले की दरकी हुई दीवारों को दुरूस्त करने की ताजा कोशिश में मुलामय सिंह यादव ने अपनी पार्टी के मुसलमान नेता की शक्ल में कुख्यात रामपुरी खां साहब को आंसुओं से भिगोते हुए एक बार फिर गले से लगा लिया। आजम खां ने भी 18 महीने के बनवास के बाद अपने सफेद रूमाल से अपनी गीली आंखे पोंछकर सूबे से बसपा सरकार को उखाड़ फेंकने का एलान कर डाला। इसी गरज से उन्होंने छोटे समाजवादी भइया की पेशकश नेेता विपक्ष पद को भी ठुकरा दिया। तमाम गिले, शिकवों और तंज में डूबे भारी भरकम शेर सुनाकर, भावनाओं के ठाठे मारते दरिया में बरसों पुरानी बहती रिश्तों की कश्ती का वास्ता देकर भाई जान को मुसलमान वोटों से बेफिक्र होने की गारंटी भी दे डाली। गो कि साइकिल के फर्राटा भरने के दिन आ गए। समूचे मीडिया ने भी उनकी दोबारा कायम हुई दोस्ती को इसी नजरिए से देखा, दिखाया और पढ़ाया। हालांकि यह पहली घटना नहीं है।
    मुलामय सिंह यादव मतलब परस्त दोस्ती, लाभ व सुविधा की राजनीति के लिए बखूबी जाने-पहचाने जाते हैं। उनके अतीत के पन्ने पलटिये, तो पता चलेगा कि उनकी सफलता के पीछे अपराध को राजनीति से जोड़ने, अपने ही सहयोगियों को मतलब निकल जाने के बाद ठिकाने लगाने की खतरनाक चालाकी भरा उनका मिजाज रहा है। जानने वाले जानते हैं, चैधरी चरण सिंह राम विलास पासवान को अपना राजनैतिक पुत्र कहा करते थे, उन्हें इन्हीं मुलायम सिंह की अगुवाई में अजीत सिंह की मर्जी के खिलाफ पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाया गया था। मुलायम की खतरनाक चालांें का शिकार शारदा प्रताप रावत से लेकर एक लम्बी फेहरिस्त रही है। यहां तक सूबे के मुख्यमंत्री रहे राम नरेश यादव भी मुलायम की चालों का शिकार रहे। इसी तरह कई दुश्मनों से उनकी दोस्ती में उनके दुश्मन नंबर एक रहे इटावा के बलराम सिंह यादव से हुई उनकी दोस्ती का जिक्र काफी होगा। यहां 1985 के चुनाव के दौरान उनके चालाकी भरे षड़यंत्रों के शिकारों की लम्बी सूची उजागर किये बगैर केवल एक नाम राजेन्द्र सिंह लोकदल के वरिष्ठ नेता का लेना ही काफी होगा, जिन्हें धकियाकर मुलायम सिंह उप्र विधानसभा में नेता विरोधी दल बने थे। जबकि राजेन्द्र सिंह ही चैधरी साहब के दरबार में मुलायम सिंह के पैरोकार थे। ऐसे सैकड़ों प्रकरण है और उनकी खतरनाक चालों के शिकार बीसियों तेज तर्रार नेताओं के नाम हैं। इनमें एक वाकये का जिक्र मुसलमानों की मसीहाई शक्ल को आईना दिखाने के लिहाज से बेहद जरूरी है। उप्र लोकदल के अध्यक्ष राम नरेश कुशवाहा को हटाने को लेकर हुए लंबे नाटक के दौरान 27 नवंबर 1986 को लोकदल के महामंत्री सत्य प्रकाश मालवीय के घर हुई एक बैठक में प्रदेश अध्यक्ष रशीद मसूद या सखावत हुसैन को बनाने की बात हुई, तब मुलायम सिंह यादव ने ही कहा था, ‘मुसलमान तो वोट ही नहीं देते हैं।’
    मुलायम सिंह के दोस्तों की हालिया लिस्ट में बेनी प्रसाद वर्मा, सुब्रत राय सहारा, अमिताभ बच्चन, अमर सिंह, संजय दत्त, मनोज तिवारी, जयाप्रदा जैसे बड़े नाम जहां काट दिये गये, वहीं कल्याण सिंह आज फिर से कट्टर दुश्मनों में शुमार हो रहे हैं, तो कुसुमराय से पर्दे के पीछे गुफ्तगू जारी है। ध्यान रहे कुसुमराय मुलायम के मंत्रिमण्डल में मंत्री भी रह चुकी हैं।
    मुलायम सिंह यादव का इतिहास दोहराने की आवश्यकता इसलिए थी कि वे कल्याण सिंह की दोस्ती के जरिए पिछड़े हिंदुओं का वोट हासिल करके जहां लोकसभा में बढ़त बनाना चाहते थे, वहीं पिछड़ों के एक मात्र नेता साबित करने की बरसों पुरानी चाहत भी पूरी करना चाहते थे, नाकामयाब रहे। एक बार फिर सफलता की सीढ़ी चढ़ने को आतुर आजम खां के जरिये मुसलमान वोटों को हासिल कर सूबे में सपा की सरकार बनाने का सपना संजोए हैं। लब्बोलुआब यह कि तिकड़म और मतलबपरस्ती की राजनीति में भावुकता का मुलम्मा चढ़ाकर वे ‘वोटरों’ को क्या संदेश देना चाह रहे हैं?
    आजम खां के भावुकता भरे अल्फाजों, नेताजी ने उन्हें दल से निकाला था, दिल से नहीं। मेरी भी स्थिति वैसी ही थीं। पार्टी से बाहर होने के दौरान भी उनके नेता मुलायम सिंह यादव ही थे। एक गलत व्यक्ति समाजवाद का मुस्तकबिल बनने लगा था। ऐसे में अगर विरोध न करता तो क्या इतिहासपुरूष बनने जा रहे एक व्यक्ति को गलत रास्ते की तरफ बढ़ने देता? सच तो यह है कि उस समय अपना बहुत कुछ खोकर बहुतों की आवाज बन गया था। माफी मांगकर मुलायम सिंह का कद पहले से और अधिक बढ़ गया है। मेरा मुलायम सिंह से रिश्ता सिर्फ राजनीति का नहीं है। अनेक मुश्किल दौर में उन्हें परखा भी है। इसका अहसास मुलायम सिंह को भी नहीं है इसीलिए उन्हें गलत रास्ते की तरफ जाने नहीं देना चाहता था। एक बात और कि अगर लोगों का मुलायम सिंह यादव पर से भरोसा हट गया तो लंबे समय तक लोग किसी नेता पर भरोसा नहीं करंेगे, के साथ उनकी आंख नम हो गई। खुदा जाने मुसलमानों के दिलों में कोई हलचल पैदा हुई या नहीं, लेकिन यह साबित हो गया कि कोई किसी से कम नहीं और उनके लिए कहीं ठौर नहीं, तो इनके लिए कोई और नहीं। ऐसा नहीं है कि अकेले आजम खां को ही रूलाने में कामयाबी हासिल की गई है। संजय डालमिया की भी आंखे मुलायम से एक मुलाकात के दौरान नम हो चुकी हैं। तमाम पुराने समाजवादियों को आंसुओं से भीगे रूमाल की नमी दिखाने का अभियान जारी है। इसके पीछे उनकी बहू डिंपल व भतीजे की हार भर का मलाल ही नहीं है, वरन एक बार उप्र के सिंहासन पर बैठकर कई हिसाब-किताब चुकता करने की चाहत भी पाले हैं मुलायम सिंह यादव। बहरहाल इस मुहिंम का नतीजा जो भी हो लेकिन एक बात तय है कि सूबे का मतदाता बेहद समझदार है और मुसलमान अब ‘वोट’ भर नहीं रहा। यहां एक बात और कहना गैर जरूरी नहीं होगा कि समाजवादी पार्टी का मुसलमान चेहरा आजम खां उस तरह से देखा जा रहा है जैसे बारातों में सबसे आगे चालते हाथी की शोभा।